श्रीमद्भगवत गीता | Gita

श्रीमद्भगवत गीता - पुस्तक

सर्व गीता अध्याय व श्लोक - पढ़िये

श्रीमद्भगवत गीता ज्ञान

पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान किसने कहा?

पवित्र गीता जी के ज्ञान को उस समय बोला गया था जब महाभारत का युद्ध होने जा रहा था। अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। युद्ध क्यों हो रहा था? इस युद्ध को धर्मयुद्ध की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती क्योंकि दो परिवारों का सम्पत्ति वितरण का विषय था। कौरवों तथा पाण्डवों का सम्पत्ति बंटवारा नहीं हो रहा था। कौरवों ने पाण्डवों को आधा राज्य भी देने से मना कर दिया था। दोनों पक्षों का बीच-बचाव करने के लिए प्रभु श्री कृष्ण जी तीन बार शान्ति दूत बन कर गए। परन्तु दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जिद्द पर अटल थे। श्री कृष्ण जी ने युद्ध से होने वाली हानि से भी परिचित कराते हुए कहा कि न जाने कितनी बहन विधवा होंगी ? न जाने कितने बच्चे अनाथ होंगे ? महापाप के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। युद्ध में न जाने कौन मरे, कौन बचे ? तीसरी बार जब श्री कृष्ण जी समझौता करवाने गए तो दोनों पक्षों ने अपने-अपने पक्ष वाले राजाओं की सेना सहित सूची पत्र दिखाया तथा कहा कि इतने राजा हमारे पक्ष में हैं तथा इतने हमारे पक्ष में। जब श्री कृष्ण जी ने देखा कि दोनों ही पक्ष टस से मस नहीं हो रहे हैं, युद्ध के लिए तैयार हो चुके हैं। तब श्री कृष्ण जी ने सोचा कि एक दाव और है वह भी आज लगा देता हूँ। श्री कृष्ण जी ने सोचा कि कहीं पाण्डव मेरे सम्बन्धी होने के कारण अपनी जिद्द इसलिए न छोड़ रहे हों कि श्री कृष्ण हमारे साथ हैं, विजय हमारी ही होगी(क्योंकि श्री कृष्ण जी की बहन सुभद्रा जी का विवाह श्री अर्जुन जी से हुआ था)। श्री कृष्ण जी ने कहा कि एक तरफ मेरी सर्व सेना होगी और दूसरी तरफ मैं होऊँगा और इसके साथ-साथ मैं वचन बद्ध भी होता हूँ कि मैं हथियार भी नहीं उठाऊँगा। इस घोषणा से पाण्डवों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उनको लगा कि अब हमारी पराजय निश्चित है। यह विचार कर पाँचों पाण्डव यह कह कर सभा से बाहर गए कि हम कुछ विचार कर लें। कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को सभा से बाहर आने की प्रार्थना की। श्री कृष्ण जी के बाहर आने पर पाण्डवों ने कहा कि हे भगवन् ! हमें पाँच गाँव दिलवा दो। हम युद्ध नहीं चाहते हैं। हमारी इज्जत भी रह जाएगी और आप चाहते हैं कि युद्ध न हो, यह भी टल जाएगा।

पाण्डवों के इस फैसले से श्री कृष्ण जी बहुत प्रसन्न हुए तथा सोचा कि बुरा समय टल गया। श्री कृष्ण जी वापिस आए, सभा में केवल कौरव तथा उनके समर्थक शेष थे। श्री कृष्ण जी ने कहा दुर्योधन युद्ध टल गया है। मेरी भी यह हार्दिक इच्छा थी। आप पाण्डवों को पाँच गाँव दे दो, वे कह रहे हैं कि हम युद्ध नहीं चाहते। दुर्योधन ने कहा कि पाण्डवों के लिए सुई की नोक तुल्य भी जमीन नहीं है। यदि उन्हंे राज्य चाहिए तो युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र के मैदान में आ जाऐं। इस बात से श्री कृष्ण जी ने नाराज होकर कहा कि दुर्योधन तू इंसान नहीं शैतान है। कहाँ आधा राज्य और कहाँ पाँच गाँव? मेरी बात मान ले, पाँच गाँव दे दे। श्री कृष्ण से नाराज होकर दुर्योधन ने सभा में उपस्थित योद्धाओं को आज्ञा दी कि श्री कृष्ण को पकड़ो तथा कारागार में डाल दो। आज्ञा मिलते ही योद्धाओं ने श्री कृष्ण जी को चारों तरफ से घेर लिया। श्री कृष्ण जी ने अपना विराट रूप दिखाया। जिस कारण सर्व योद्धा और कौरव डर कर कुर्सियों के नीचे घुस गए तथा शरीर के तेज प्रकाश से आँखें बंद हो गई। श्री कृष्ण जी वहाँ से निकल गए।

आओ विचार करें:- उपरोक्त विराट रूप दिखाने का प्रमाण संक्षिप्त महाभारत गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में प्रत्यक्ष है। जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवत्र्त हुआ हूँ। फिर अध्याय 11 श्लोक 21 व 46 में अर्जुन कह रहा है कि भगवन् ! आप तो ऋषियों, देवताओं तथा सिद्धों को भी खा रहे हो, जो आप का ही गुणगान पवित्र वेदों के मंत्रों द्वारा उच्चारण कर रहे हैं तथा अपने जीवन की रक्षा के लिए मंगल कामना कर रहे हैं। कुछ आपके दाढ़ों में लटक रहे हैं, कुछ आप के मुख में समा रहे हैं। हे सहò बाहु अर्थात् हजार भुजा वाले भगवान ! आप अपने उसी चतुर्भुज रूप में आईये। मैं आपके विकराल रूप को देखकर धीरज नहीं कर पा रहा हूँ।

अध्याय 11 श्लोक 47 में पवित्र गीता जी को बोलने वाला प्रभु काल कह रहा है कि ‘हे अर्जुन यह मेरा वास्तविक काल रूप है, जिसे तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा था।‘ उपरोक्त विवरण से एक तथ्य तो यह सिद्ध हुआ कि कौरवों की सभा में विराट रूप श्री कृष्ण जी ने दिखाया था तथा यहाँ युद्ध के मैदान में विराट रूप काल (श्री कृष्ण जी के शरीर मंे प्रेतवत् प्रवेश करके अपना विराट रूप काल) ने दिखाया था। नहीं तो यह नहीं कहता कि यह विराट रूप तेरे अतिरिक्त पहले किसी ने नहीं देखा है। क्योंकि श्री कृष्ण जी अपना विराट रूप कौरवों की सभा में पहले ही दिखा चुके थे।

दूसरी यह बात सिद्ध हुई कि पवित्र गीता जी को बोलने वाला काल(ब्रह्म-ज्योति निरंजन) है, न कि श्री कृष्ण जी। क्योंकि श्री कृष्ण जी ने पहले कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ तथा बाद में कभी नहीं कहा कि मैं काल हूँ। श्री कृष्ण जी काल नहीं हो सकते। उनके दर्शन मात्र को तो दूर-दूर क्षेत्र के स्त्री तथा पुरुष तड़फा करते थे। यही प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24. 25 में है जिसमें गीता ज्ञान दाता प्रभु ने कहा है कि बुद्धिहीन जन समुदाय मेरे उस घटिया (अनुत्तम) विद्यान को नहीं जानते कि मैं कभी भी मनुष्य की तरह किसी के सामने प्रकट नहीं होता। मैं अपनी योगमाया से छिपा रहता हूँ।

उपरोक्त विवरण से सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान दाता श्री कृष्ण जी नहीं है। क्योंकि श्री कृष्ण जी तो सर्व समक्ष साक्षात् थे। श्री कृष्ण नहीं कहते कि मैं अपनी योग माया से छिपा रहता हूँ। इसलिए गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी के अन्दर प्रेतवत् प्रवेश करके काल ने बोला था। नोट:- विराट रूप क्या होता है ?

विराट रूप: आप दिन के समय या चाँदनी रात्री में जब आप के शरीर की छाया छोटी लगभग शरीर जितनी लम्बी हो या कुछ बड़ी हो, उस छाया के सीने वाले स्थान पर दो मिनट तक एक टक देखें, चाहे आँखों से पानी भी क्यों न गिरें। फिर सामने आकाश की तरफ देखें। आपको अपना ही विराट रूप दिखाई देगा, जो सफेद रंग का आसमान को छू रहा होगा। इसी प्रकार प्रत्येक मानव अपना विराट रूप रखता है। परन्तु जिनकी भक्ति शक्ति ज्यादा होती है, उनका उतना ही तेज अधिक होता जाता है।

इसी प्रकार श्री कृष्ण जी भी पूर्व भक्ति शक्ति से सिद्धि युक्त थे, उन्होंने भी अपनी सिद्धि शक्ति से अपना विराट रूप प्रकट कर दिया, जो काल के तेजोमय शरीर(विराट) से कम तेजोमय था। तीसरी बात यह सिद्ध हुई कि पवित्र गीता जी बोलने वाला प्रभु काल सहòबाहु अर्थात् हजार भुजा युक्त है तथा श्री कृष्ण जी तो श्री विष्णु जी के अवतार हैं जो चार भुजा युक्त हैं। श्री विष्णु जी सोलह कला युक्त हैं तथा श्री ज्योति निरंजन काल भगवान एक हजार कला युक्त है। जैसे एक बल्ब 60 वाट का होता है, एक बल्ब 100 वाट का होता है, एक बल्ब 1000 वाट का होता है, रोशनी सर्व बल्बों की होती है, परन्तु बहुत अन्तर होता है। ठीक इसी प्रकार दोनों प्रभुओं की शक्ति तथा विराट रूप का तेज भिन्न-भिन्न था।

इस तत्वज्ञान के प्राप्त होने से पूर्व जो गीता जी के ज्ञान को समझाने वाले महात्मा जी थे, उनसे प्रश्न किया करते थे कि पहले तो भगवान श्री कृष्ण जी शान्ति दूत बनकर गए थे तथा कहा था कि युद्ध करना महापाप है। जब श्री अर्जुन जी ने स्वयं युद्ध करने से मना करते हुए कहा कि हे देवकी नन्दन मैं युद्ध नहीं करना चाहता हूँ। सामने खड़े स्वजनों व नातियों तथा सैनिकों का होने वाला विनाश देख कर मैंने अटल फैसला कर लिया है कि मुझे तीन लोक का राज्य भी प्राप्त हो तो भी मैं युद्ध नहीं करूँगा। मैं तो चाहता हूँ कि मुझ निहत्थे को दुर्योधन आदि तीर से मार डालें, ताकि मेरी मृत्यु से युद्ध में होने वाला विनाश बच जाए। हे श्री कृष्ण ! मैं युद्ध न करके भिक्षा का अन्न खाकर भी निर्वाह करना उचित समझता हूँ। हे कृष्ण ! स्वजनों को मारकर तो पाप को ही प्राप्त होंगे। मेरी बुद्धि काम करना बंद कर गई है। आप हमारे गुरु हो, मैं आपका शिष्य हूँ। आप जो हमारे हित में हो वही दीजिए। परन्तु मैं नहीं मानता हूँ कि आपकी कोई भी सलाह मुझे युद्ध के लिए राजी कर पायेगी अर्थात् मैं युद्ध नहीं करूँगा। (प्रमाण पवित्र गीता जी अध्याय 1 श्लोक 31 से 39, 46 तथा अध्याय 2 श्लोक 5 से 8) फिर श्री कृष्ण जी में प्रवेश काल बार-बार कह रहे हैं कि अर्जुन कायर मत बन, युद्ध कर। या तो युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा, या युद्ध जीत कर पृथ्वी के राज्य को भोगेगा, आदि-आदि कह कर ऐसा भयंकर विनाश करवा डाला जो आज तक के संत-महात्माओं तथा सभ्य लोगों के चरित्र में ढूंढने से भी नहीं मिलता है। तब वे नादान गुरु जी(नीम-हकीम) कहा करते थे कि अर्जुन क्षत्री धर्म को त्याग रहा था। इससे क्षत्रित्व को हानि तथा शूरवीरता का सदा के लिए विनाश हो जाता। अर्जुन को क्षत्री धर्म पालन करवाने के लिए यह महाभारत का युद्ध श्री कृष्ण जी ने करवाया था। पहले तो मैं उनकी इस नादानों वाली कहानी से चुप हो जाता था, क्योंकि मुझे स्वयं ज्ञान नहीं था।

पुनर् विचार करें:- भगवान श्री कृष्ण जी स्वयं क्षत्री थे। कंस के वध के उपरान्त श्री अग्रसैन जी ने मथुरा की बाग-डोर अपने दोहते श्री कृष्ण जी को संभलवा दी थी। एक दिन नारद जी ने श्री कृष्ण जी को बताया कि निकट ही एक गुफा में एक सिद्धि युक्त राक्षस राजा मुचकन्द सोया पड़ा है। वह छः महीने सोता है तथा छः महीने जागता है। जागने पर छः महीने युद्ध करता रहता है तथा छः महीने सोने के समय यदि कोई उसकी निन्द्रा भंग कर दे तो मुचकन्द की आँखों से अग्नि बाण छूटते हैं तथा सामने वाला तुरन्त मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, आप सावधान रहना। यह कह कर श्री नारद जी चले गए।

कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को छोटी उम्र में मथुरा के सिंहासन पर बैठा देख कर एक काल्यवन नामक राजा ने अठारह करोड़ सैना लेकर मथुरा पर आक्रमण कर दिया। श्री कृष्ण जी ने देखा कि दुश्मन की सैना बहु संख्या में है तथा न जाने कितने सैनिक मृत्यु को प्राप्त होंगे, क्यों न काल्यवन का वध मुचकन्द से करवा दूं। यह विचार कर भगवान श्री कृष्ण जी ने काल्यवन को युद्ध के लिए ललकारा तथा युद्ध छोड़ कर(क्षत्री धर्म को भूलकर विनाश टालना आवश्यक जानकर) भाग लिये और उस गुफा में प्रवेश किया जिसमें मुचकन्द सोया हुआ था। मुचकन्द के शरीर पर अपना पीताम्बर(पीली चद्दर) डाल कर श्री कृष्ण जी गुफा में गहरे जाकर छुप गए। पीछे-पीछे काल्यवन भी उसी गुफा में प्रवेश कर गया। मुचकन्द को श्री कृष्ण कर समझ उसका पैर पकड़ कर घुमा दिया तथा कहा कि कायर तुझे छुपे हुए को थोड़े ही छोडूंगा। पीड़ा के कारण मुचकन्द की निंद्रा भंग हुई, नेत्रों से अग्नि बाण निकलें तथा काल्यवन का वध हुआ। काल्यवन के सैनिक तथा मंत्री अपने राजा के शव को लेकर वापिस चल पड़े। क्योंकि युद्ध में राजा की मृत्यु सैना की हार मानी जाती थी। जाते हुए कह गए कि हम नया राजा नियुक्त करके शीघ्र ही आयेंगे तथा श्री कृष्ण तुझे नहीं छोड़ेंगे।

श्री कृष्ण जी ने अपने मुख्य अभियन्ता (चीफ इन्जिनियर) श्री विश्वकर्मा जी को बुला कर कहा कि कोई ऐसा स्थान खोजो, जिसके तीन तरफ समुद्र हो तथा एक ही रास्ता(द्वार) हो। वहाँ पर अति शीघ्र एक द्वारिका(एक द्वार वाली) नगरी बना दो। हम शीर्घ ही यहाँ से प्रस्थान करेंगे। ये मूर्ख लोग यहाँ चैन से नहीं जीने देंगे। श्री कृष्ण जी इतने नेक आत्मा तथा युद्ध विपक्षी थे कि अपने क्षत्रीत्व को भी दाव पर रख कर जुल्म को टाला। क्या फिर वही श्री कृष्ण जी अपने प्यारे साथी व सम्बन्धी को ऐसी बुरी सलाह दे सकते हैं तथा स्वयं युद्ध न करने का वचन करने वाले दूसरे को युद्ध की प्रेरणा दे सकते हैं? अर्थात् कभी नहीं। गीता अध्याय 18 श्लोक 43 में गीता ज्ञान दाता ने क्षत्री के स्वभाविक कर्मों का उल्लेख करते हुए कहा है कि ‘‘युद्ध से न भागना’’ आदि-2 क्षत्री के स्वभाविक कर्म है। इस से भी सिद्ध हुआ कि गीता जी का ज्ञान श्री कृष्ण जी ने नहीं बोला। क्योंकि श्री कृष्ण जी स्वयं क्षत्री होते हुए कालयवन के सामने से युद्ध से भाग गए थे। व्यक्ति स्वयं किए कर्म के विपरीत अन्य को राय नहीं देता। न उसकी राय श्रोता को ठीक जचेगी। वह उपहास का पात्र बनेगा। यह गीता ज्ञान ब्रह्म(काल) ने प्रेतवत् श्री कृष्ण जी में प्रवेश करके बोला था। भगवान श्री कृष्ण रूप में स्वयं श्री विष्णु जी ही अवतार धार कर आए थे।

एक समय श्री भृगु ऋषि ने आराम से बैठे भगवान श्री विष्णु जी(श्री कृष्ण जी) के सीने में लात घात किया। श्री विष्णु जी ने श्री भृगु ऋषि जी के पैर को सहलाते हुए कहा कि ‘हे ऋषिवर! आपके कोमल पैर को कहीं चोट तो नहीं आई, क्योंकि मेरा सीना तो कठोर पत्थर जैसा है।‘ यदि श्री विष्णु जी(श्री कृष्ण जी) युद्ध प्रिय होते तो सुदर्शन चक्र से श्री भृगु जी के इतने टुकड़े कर सकते थे कि गिनती न होती।

वास्तविकता यह है कि काल भगवान जो इक्कीस ब्रह्मण्ड का प्रभु है, उसने प्रतिज्ञा की है कि मैं स्थूल शरीर में व्यक्त(मानव सदृश अपने वास्तविक) रूप में सबके सामने नहीं आऊँगा। उसी ने सूक्ष्म शरीर बना कर प्रेत की तरह श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके पवित्र गीता जी का ज्ञान तो सही(वेदों का सार) कहा, परन्तु युद्ध करवाने के लिए भी अटकल बाजी में कसर नहीं छोड़ी। काल(ब्रह्म) कौन है? यह जानने के लिए कृप्या पढ़िए सृष्टि रचना।

जब तक महाभारत का युद्ध समाप्त नहीं हुआ तब तक ज्योति निरंजन (काल - ब्रह्म - क्षर पुरुष) श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश रहा तथा युधिष्ठिर जी से झूठ बुलवाया कि कह दो कि अश्वत्थामा मर गया, श्री बबरु भान(खाटू श्याम जी) का शीश कटवाया तथा रथ के पहिए को हथियार रूप में उठाया, यह सर्व काल ही का किया-कराया उपद्रव था, प्रभु श्री कृष्ण जी का नहीं। महाभारत का युद्ध समाप्त होते ही काल भगवान श्री कृष्ण जी के शरीर से निकल गया। श्री कृष्ण जी ने श्री युधिष्ठिर जी को इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) की राजगद्दी पर बैठाकर द्वारिका जाने को कहा। तब अर्जुन आदि ने प्रार्थना की कि हे श्री कृष्ण जी! आप हमारे पूज्य गुरुदेव हो, हमें एक सतसंग सुना कर जाना, ताकि हम आपके सद्वचनों पर चल कर अपना आत्म-कल्याण कर सकें।

यह प्रार्थना स्वीकार करके श्री कृष्ण जी ने तिथि, समय तथा स्थान निहित कर दिया। निश्चित तिथि को श्री अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण जी से कहा कि प्रभु आज वही पवित्र गीता जी का ज्ञान ज्यों का त्यों सुनाना, क्योंकि मैं बुद्धि के दोष से भूल गया हूँ। तब श्री कृष्ण जी ने कहा कि हे अर्जुन तू निश्चय ही बड़ा श्रद्धाहीन है। तेरी बुद्धि अच्छी नहीं है। ऐसे पवित्र ज्ञान को तूं क्यों भूल गया ? फिर स्वयं कहा कि अब उस पूरे गीता ज्ञान को मैं नहीं कह सकता अर्थात् मुझे ज्ञान नहीं। कहा कि उस समय तो मैंने योग युक्त होकर बोला था। विचारणीय विषय है कि यदि भगवान श्री कृष्ण जी युद्ध के समय योग युक्त हुए होते तो शान्ति समय में योग युक्त होना कठीन नहीं था। जबकि श्री व्यास जी ने वही पवित्र गीता जी का ज्ञान वर्षों उपरान्त ज्यों का त्यों लिपिबद्ध कर दिया। उस समय वह ब्रह्म(काल-ज्योति निरंजन) ने श्री व्यास जी के शरीर में प्रवेश कर के पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी को लिपिबद्ध कराया, जो वर्तमान में आप के कर कमलों में है।

प्रमाण के लिए संक्षिप्त महाभारत पृष्ठ नं. 667 तथा पुराने के पृष्ठ नं. 1531 पर:-

न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषतः।।
परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया।
(महाभारत, आश्रवः 1612.13)
भगवान बोले - ‘वह सब-का-सब उसी रूपमें फिर दुहरा देना अब मेरे वशकी बात नहीं है। उस समय मैंने योगयुक्त होकर परमात्मतत्वका वर्णन किया था।‘ संक्षिप्त महाभारत द्वितीय भाग के पृष्ठ नं. 1531 से सहाभार:

श्रीमद् भगवत् गीता सार

श्रीमद् भगवत् गीता सार

Jagat Guru Rampal Ji

संत रामपाल जी महाराज

परमेश्वर की खोज में आत्मा युगों से लगी है। जैसे प्यासे को जल की चाह होती है। जीवात्मा परमात्मा से बिछुड़ने के पश्चात् महा कष्ट झेल रही है। जो सुख पूर्ण ब्रह्म(सतपुरुष) के सतलोक(ऋतधाम) में था, वह सुख यहाँ काल(ब्रह्म) प्रभु के लोक में नहीं है। चाहे कोई करोड़पति है, चाहे पृथ्वीपति(सर्व पृथ्वी का राजा) है, चाहे सुरपति(स्वर्ग का राजा इन्द्र) है, चाहे श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव त्रिलोकपति हैं। क्योंकि जन्म तथा मृत्यु तथा किये कर्म का भोग अवश्य ही प्राप्त होता है (प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5)। इसीलिए पवित्र श्रीमद् भगवद् गीता के ज्ञान दाता प्रभु(काल भगवान) ने अध्याय 15 श्लोक 1 से 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि अर्जुन सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उसकी कृपा से ही तू परम शांति को तथा सतलोक(शाश्वतम् स्थानम्) को प्राप्त होगा। उस परमेश्वर के तत्व ज्ञान व भक्ति मार्ग को मैं(गीता ज्ञान दाता) नहीं जानता। उस तत्व ज्ञान को तत्वदर्शी संतों के पास जा कर उनको दण्डवत प्रणाम कर तथा विनम्र भाव से प्रश्न कर, तब वे तत्वदृष्टा संत आपको परमेश्वर का तत्व ज्ञान बताएंगे। फिर उनके बताए भक्ति मार्ग पर सर्व भाव से लग जा (प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34)। तत्वदर्शी संत की पहचान गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में बताते हुए कहा है कि यह संसार उल्टे लटके हुए वृक्ष की तरह है। जिसकी ऊपर को मूल तथा नीचे को शाखा है। जो इस संसार रूपी वृक्ष के विषय में जानता है वह तत्वदर्शी संत है। गीता अध्याय 15 श्लोक 2 से 4 में कहा है कि उस संसार रूपी वृक्ष की तीनों गुण(रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) रूपी शाखा है। जो (स्वर्ग लोक, पाताल लोक तथा पृथ्वी लोक) तीनों लोकों में ऊपर तथा नीचे फैली हैं। उस संसार रूपी उल्टे लटके हुए वृक्ष के विषय में अर्थात् सृष्टि रचना के बारे में मैं इस गीता जी के ज्ञान में नहीं बता पाऊंगा। यहां विचार काल में(गीता ज्ञान) जो ज्ञान आपको बता रहा हूँ यह पूर्ण ज्ञान नहीं है। उसके लिए गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में संकेत किया है जिसमें कहा है कि पूर्ण ज्ञान(तत्व ज्ञान) के लिए तत्वदर्शी संत के पास जा, वही बताएंगे। मुझे पूर्ण ज्ञान नहीं है। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वदर्शी संत की प्राप्ति के पश्चात् उस परमपद परमेश्वर(जिसके विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है) की खोज करनी चाहिए। जहां जाने के पश्चात् साधक पुनर् लौटकर वापिस नहीं आता अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है। जिस पूर्ण परमात्मा से उल्टे संसार रूपी वृक्ष की प्रवृत्ति विस्तार को प्राप्त हुई है। भावार्थ है कि जिस परमेश्वर ने सर्व ब्रह्मण्डों की रचना की है तथा मैं(गीता ज्ञान दाता ब्रह्म) भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर अर्थात् पूर्ण परमात्मा की शरण हूँ। उसकी साधना करने से अनादि मोक्ष(पूर्ण मोक्ष) प्राप्त होता है। तत्वदर्शी संत वही है जो ऊपर को मूल तथा नीचे को तीनों गुण(रजगुण-ब्रह्म जी, सतगुण-विष्णु जी तथा तमगुण शिवजी) रूपी शाखाओं तथा तना व मोटी डार की पूर्ण जानकारी प्रदान करता है। (कृप्या देखें उल्टा लटका हुआ संसार रूपी वृक्ष का चित्र)

अपने द्वारा रची सृष्टि का पूर्ण ज्ञान(तत्वज्ञान) स्वयं ही पूर्ण परमात्मा कविर्देव(कबीर परमेश्वर) ने तत्वदर्शी संत की भूमिका करके(कविर्गीर्भिः) कबीर वाणी द्वारा बताया है(प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 16 से 20 तक तथा ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 90 मंत्र 1 से 5 तथा अथर्ववेद काण्ड 4 अनुवाक 1 मंत्र 1 से 7 में)।

कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, ज्योति निरंजन वाकी डार। तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।। पवित्र गीता जी में भी तीन प्रभुओं(1. क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म, 2. अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म तथा 3. परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्णब्रह्म) के विषय में वर्णन है। प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17, अध्याय 8 श्लोक 1 का उत्तर श्लोक 3 में है वह परम अक्षर ब्रह्म है तथा तीन प्रभुओं का एक और प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 25 में गीता ज्ञान दाता काल(ब्रह्म) ने अपने विषय में कहा है कि मैं अव्यक्त हूँ। यह प्रथम अव्यक्त प्रभु हुआ। फिर गीता अध्याय 8 श्लोक 18 में कहा है कि यह संसार दिन के समय अव्यक्त(परब्रह्म) से उत्पन्न हुआ है। फिर रात्री के समय उसी में लीन हो जाता है। यह दूसरा अव्यक्त हुआ। अध्याय 8 श्लोक 20 में कहा है कि उस अव्यक्त से भी दूसरा जो अव्यक्त(पूर्णब्रह्म) है वह परम दिव्य पुरुष सर्व प्राणियों के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। यही प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 17 में भी है कि नाश रहित उस परमात्मा को जान जिसका नाश करने में कोई समर्थ नहीं है। अपने विषय में गीता ज्ञान दाता(ब्रह्म) प्रभु अध्याय 4 मंत्र 5 तथा अध्याय 2 श्लोक 12 में कहा है कि मैं तो जन्म-मृत्यु में अर्थात् नाशवान हूँ।

उपरोक्त संसार रूपी वृक्ष की मूल(जड़) तो परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्ण ब्रह्म कविर्देव है। इसी को तीसरा अव्यक्त प्रभु कहा है। वृक्ष की मूल से ही सर्व पेड़ को आहार प्राप्त होता है। इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि वास्तव में परमात्मा तो क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म तथा अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म से भी अन्य ही है। जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है वही वास्तव में अविनाशी है। 1. क्षर का अर्थ है नाशवान। क्योंकि ब्रह्म अर्थात् गीता ज्ञान दाता ने तो स्वयं कहा है कि अर्जुन तू तथा मैं तो जन्म-मृत्यु में हैं(प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 में)। 2. अक्षर का अर्थ है अविनाशी। यहां परब्रह्म को भी स्थाई अर्थात् अविनाशी कहा है। परंतु यह भी वास्तव में अविनाशी नहीं है। जैसे एक मिट्टी का प्याला है जो सफेद रंग का चाय पीने के काम आता है। वह तो गिरते ही टूट जाता है। ऐसी स्थिति ब्रह्म(काल अर्थात् क्षर पुरुष) की जानें। दूसरा प्याला इस्पात(स्टील) का होता है। यह मिट्टी के प्याले की तुलना में अधिक स्थाई (अविनाशी) लगता है परंतु इसको भी जंग लगता है तथा नष्ट हो जाता है, भले ही समय ज्यादा लगे। इसलिए यह भी वास्तव में अविनाशी नहीं है। तीसरा प्याला सोने(स्वर्ण) का है। स्वर्ण धातु वास्तव में अविनाशी है जिसका नाश नहीं होता। जैसे परब्रह्म(अक्षर पुरुष) को अविनाशी भी कहा है तथा वास्तव में अविनाशी तो इन दोनों से अन्य है, इसलिए अक्षर पुरुष को अविनाशी भी नहीं कहा है । कारण:- सात रजगुण ब्रह्मा की मृत्यु के पश्चात् एक सतगुण विष्णु की मृत्यु होती है। सात सतगुण विष्णु की मृत्यु के पश्चात् एक तमगुण शिव की मृत्यु होती है। जब तमगुण शिव की 70 हजार बार मृत्यु हो जाती है तब एक क्षर पुरुष(ब्रह्म) की मृत्यु होती है। यह परब्रह्म(अक्षर पुरुष) का एक युग होता है। एैसे एक हजार युग का परब्रह्म का एक दिन तथा इतनी ही रात्री होती है। तीस दिन रात का एक महीना, बारह महीनों का एक वर्ष तथा सौ वर्ष की परब्रह्म(अक्षर पुरुष) की आयु होती है। तब यह परब्रह्म तथा सर्व ब्रह्मण्ड जो सतलोक से नीचे के हैं नष्ट हो जाते हैं। कुछ समय उपरांत सर्व नीचे के ब्रह्मण्डों(ब्रह्म तथा परब्रह्म के लोकों) की रचना पूर्ण ब्रह्म अर्थात् परम अक्षर पुरुष करता है। इस प्रकार यह तत्व ज्ञान समझना है। परन्तु परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्ण ब्रह्म (सतपुरुष) तथा उसका सतलोक (ऋतधाम) सहित ऊपर के अलखलोक, अगम लोक तथा अनामी लोक कभी नष्ट नहीं होते। इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि वास्तव में उत्तम प्रभु अर्थात् पुरुषोत्तम तो ब्रह्म(क्षर पुरुष) तथा परब्रह्म(अक्षर पुरुष) से अन्य ही है जो पूर्ण ब्रह्म(परम अक्षर पुरुष) है। वही वास्तव में अविनाशी है। वही सर्व का धारण-पोषण करने वाला संसार रूपी वृक्ष की मूल रूपी पूर्ण परमात्मा है। वृक्ष का जो भाग जमीन के तुरंत बाहर नजर आता है वह तना कहलाता है। उसे अक्षर पुरुष(परब्रह्म) जानो। तने को भी आहार मूल(जड़) से प्राप्त होता है। फिर तने से आगे वृक्ष की कई डार होती हैं उनमें से एक डार ब्रह्म(क्षर पुरुष) है। इसको भी आहार मूल(जड़) अर्थात् परम अक्षर पुरुष से ही प्राप्त होता है। उस डार(क्षर पुरुष/ब्रह्म) की मानों तीन गुण(रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु तथा तमगुण-शिव) रूपी शाखाएं हैं। इन्हें भी आहार मूल(परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्णब्रह्म) से ही प्राप्त होता है। इन तीनों शाखाओं से पात रूप में अन्य प्राणी आश्रित हैं। उन्हें भी वास्तव में आहार मूल(परम अक्षर पुरुष अर्थात् पूर्णब्रह्म) से ही प्राप्त होता है। इसीलिए सर्व को पूज्य पूर्ण परमात्मा ही सिद्ध हुआ। यह भी नहीं कहा जा सकता कि पत्तों तक आहार पहुंचाने में तना, डार तथा शाखाओं का कोई योगदान नहीं है। इसलिए सर्व आदरणीय हैं, परन्तु पूजनीय तो केवल मूल (जड़) ही होती है। आदर तथा पूजा में अंतर होता है। जैसे पतिव्रता स्त्री सत्कार तो सर्व का करती है, जैसे जेठ का बड़े भाई सम, देवर का छोटे भाई सम, परन्तु पूजा अपने पति की ही करती है अर्थात् जो भाव अपने पति में होता है ऐसा अन्य पुरुष में पतिव्रता स्त्री का नहीं हो सकता।

त्रिगुण माया (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी ) जीव को मुक्त नहीं होने देत

Jagat Guru Rampal Ji

संत रामपाल जी महाराज

पवित्र गीता जी के अ. 7 श्लोक 1 व 2 में ब्रह्म कह रहा है कि अर्जुन! अब तुझे वह ज्ञान सुनाऊँगा जिसके जानने के बाद और कुछ जानना बाकी नहीं रह जाता।

गीता अध्याय 7 श्लोक 12: गीता ज्ञान दाता ब्रह्म (क्षर पुरुष/काल) कह रहा है कि तीनों गुणों से जो कुछ हो रहा है वह मुझ से ही हुआ जान। जैसे रजगुण(ब्रह्मा) से उत्पत्ति, सतगुण(विष्णु) से पालन-पोषण स्थिति तथा तमगुण(शिव) से प्रलय(संहार) का कारण काल भगवान ही है। फिर कहा है कि मैं इन में नहीं हूँ। क्योंकि काल बहुत दूर(इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में निज लोक में रहता है) है परंतु मन रूप में मौज काल ही मनाता है तथा रिमोट से सर्व प्राणियों तथा ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी व श्री शिव जी को यन्त्र की तरह चलाता है। गीता बोलने वाला ब्रह्म कह रहा है कि मेरे इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों के प्राणियों के लिए मेरी पूजा से ही शास्त्र अनुकूल साधना प्रारम्भ होती है, जो वेदों में वर्णित है। मेरे अन्तर्गत जितने प्राणी हैं उनकी बुद्धि मेरे हाथ में है। मैं केवल इक्कीस ब्रह्मण्ड़ों में ही मालिक हूँ। इसलिए (गीता अ. 7 श्लोक 12 से 15 तक) जो भी तीनों गुणों से (रजगुण-ब्रह्मा से जीवों की उत्पत्ति, सतगुण-विष्णु जी से स्थिति तथा तमगुण-शिव जी से संहार) जो कुछ भी हो रहा है उसका मुख्य कारण मैं (ब्रह्म/काल) ही हूँ। (क्योंकि काल को एक लाख मानव शरीर धारी प्राणियों के शरीर को मार कर मैल को खाने का शाप लगा है) जो साधक मेरी (ब्रह्म की) साधना न करके त्रिगुणमयी माया (रजगुण-ब्रह्मा जी, सतगुण-विष्णु जी, तमगुण-शिव जी) की साधना करके क्षणिक लाभ प्राप्त करते हैं, जिससे ज्यादा कष्ट उठाते रहते हैं, साथ में संकेत किया है कि इनसे ज्यादा लाभ मैं (ब्रह्म-काल) दे सकता हूँ, परन्तु ये मूर्ख साधक तत्वज्ञान के अभाव से इन्हीं तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा जी, सतगुण-विष्णु जी, तमगुण-शिव जी) तक की साधना करते रहते हैं। इनकी बुद्धि इन्हीं तीनों प्रभुओं तक सीमित है। इसलिए ये राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, शास्त्र विरूद्ध साधना रूपी दुष्कर्म करनेवाले, मूर्ख मुझे(ब्रह्म को)नहीं भजते। यही प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 4 से 20 व 23, 24 तक अध्याय 17 श्लोक 2 से 14 तथा 19 व 20 में भी है।

विचार करें:- रावण ने भगवान शिव जी को मृत्युंजय, अजर-अमर, सर्वेश्वर मान कर भक्ति की, दस बार शीश काट कर समर्पित कर दिया, जिसके बदले में युद्ध के समय दस शीश रावण को प्राप्त हुए, परन्तु मुक्ति नहीं हुई, राक्षस कहलाया। यह दोष रावण के गुरुदेव का है जिस नादान (नीम-हकीम) ने वेदों को ठीक से न समझ कर अपनी सोच से तमोगुण युक्त भगवान शिव को ही पूर्ण परमात्मा बताया तथा भोली आत्मा रावण ने झूठे गुरुदेव पर विश्वास करके जीवन व अपने कुल का नाश किया।

1. एक भस्मागिरी नाम का साधक था, जिसने शिव जी (तमोगुण) को ही ईष्ट मान कर शीर्षासन(ऊपर को पैर नीचे को शीश) करके 12 वर्ष तक साधना की, भगवान शिव को वचन बद्ध करके भस्मकण्डा ले लिया। भगवान शिव जी को ही मारने लगा। उद्देश्य यह था कि भस्मकण्डा प्राप्त करके भगवान शिव जी को मार कर पार्वती जी को पत्नी बनाऊँगा। भगवान श्री शिव जी डर के मारे भाग गए, फिर श्री विष्णु जी ने उस भस्मासुर को गंडहथ नाच नचा कर उसी भस्मकण्डे से भस्म किया। वह शिव जी (तमोगुण) का साधक राक्षस कहलाया। हरिण्यकशिपु ने भगवान ब्रह्मा जी (रजोगुण) की साधना की तथा राक्षस कहलाया।

2. एक समय आज (सन् 2006 ) से लगभग 335 वर्ष पूर्व हरिद्वार में हर की पैड़ियों पर (शास्त्र विधि रहित साधना करने वालों के) कुम्भ पर्व की प्रभी का संयोग हुआ। वहाँ पर सर्व (त्रिगुण उपासक) महात्मा जन स्नानार्थ पहुँचे। गिरी, पुरी, नाथ, नागा आदि भगवान श्री शिव जी (तमोगुण) के उपासक तथा वैष्णों भगवान श्री विष्णु जी(सतोगुण) के उपासक हैं। प्रथम स्नान करने के कारण नागा तथा वैष्णों साधुओं में घोर युद्ध हो गया। लगभग 25000 (पच्चीस हजार) त्रिगुण उपासक मृत्यु को प्राप्त हुए। जो व्यक्ति जरा-सी बात पर नरसंहार (कत्ले आम) कर देता है वह साधु है या राक्षस स्वयं विचार करें। आम व्यक्ति भी कहीं स्नान कर रहे हों और कोई व्यक्ति आ कर कहे कि मुझे भी कुछ स्थान स्नान के लिए देने की कृपा करें। शिष्टाचार के नाते कहते हैं कि आओ आप भी स्नान कर लो। इधर-उधर हो कर आने वाले को स्थान दे देते हैं। इसलिए पवित्र गीता जी अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 में कहा है कि जिनका मेरी त्रिगुणमई माया (रजगुण-ब्रह्मा जी, सतगुण-विष्णु जी, तमगुण-शिव जी) की पूजा के द्वारा ज्ञान हरा जा चुका है, वे केवल मान बड़ाई के भूखे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच अर्थात् आम व्यक्ति से भी पतित स्वभाव वाले, दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मेरी भक्ति भी नहीं करते। गीता अध्याय 7 श्लोक 16 से 18 तक पवित्र गीता जी के बोलने वाला (ब्रह्म) प्रभु कह रहा है कि मेरी भक्ति (ब्रह्म साधना) भी चार प्रकार के साधक करते हैं। एक तो अर्थार्थी(धन लाभ चाहने वाले) जो वेद मंत्रों से ही जंत्र-मंत्र, हवन आदि करते रहते हैं। दूसरे आत्र्त (संकट निवार्ण के लिए वेदों के मंत्रों का जन्त्र-मंत्र हवन आदि करते रहते हैं) तीसरे जिज्ञासु जो परमात्मा के ज्ञान को जानने की इच्छा रखने वाले केवल ज्ञान संग्रह करके वक्ता बन जाते हैं तथा दूसरों में ज्ञान श्रेष्ठता के आधार पर उत्तम बन कर ज्ञानवान बनकर अभिमानवश भक्ति हीन हो जाते हैं, चैथे ज्ञानी। वे साधक जिनको यह ज्ञान हो गया कि मानव शरीर बार-बार नहीं मिलता, इससे प्रभु साधना नहीं बन पाई तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। फिर वेदों को पढ़ा, जिनसे ज्ञान हुआ कि (ब्रह्मा-विष्णु-शिवजी) तीनों गुणों व ब्रह्म (क्षर पुरुष) तथा परब्रह्म(अक्षर पुरुष) से ऊपर पूर्ण ब्रह्म की ही भक्ति करनी चाहिए, अन्य देवताओं की नहीं। उन ज्ञानी उदार आत्माओं को मैं अच्छा लगता हूँ तथा मुझे वे इसलिए अच्छे लगते हैं कि वे तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिवजी) से ऊपर उठ कर मेरी (ब्रह्म) साधना तो करने लगे जो अन्य देवताओं से अच्छी है परन्तु वेदों में ‘ओ3म्‘ नाम जो केवल ब्रह्म की साधना का मंत्र है उसी को वेद पढ़ने वाले विद्वानों ने अपने आप ही विचार - विमर्श करके पूर्ण ब्रह्म का मंत्र जान कर वर्षों तक साधना करते रहे। प्रभु प्राप्ति हुई नहीं। अन्य सिद्धियाँ प्राप्त हो गई। क्योंकि पवित्र गीता अध्याय 4 श्लोक 34 तथा पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 में वर्णित तत्वदर्शी संत नहीं मिला, जो पूर्ण ब्रह्म की साधना तीन मंत्र से बताता है, इसलिए ज्ञानी भी ब्रह्म(काल) साधना करके जन्म-मृत्यु के चक्र में ही रह गए।

एक ज्ञानी उदारात्मा महर्षि चुणक जी ने वेदों को पढ़ा तथा एक पूर्ण प्रभु की भक्ति का मंत्र ओ3म् जान कर इसी नाम के जाप से वर्षों तक साधना की। एक मानधाता चक्रवर्ती राजा था। (चक्रवर्ती राजा उसे कहते हैं जिसका पूरी पृथ्वी पर शासन हो।) उसने अपने अन्तर्गत राजाओं को युद्ध के लिए ललकारा, एक घोड़े के गले में पत्र बांध कर सारे राज्य में घुमाया। शर्त थी कि जिसने राजा मानधाता की गुलामी (आधीनता) स्वीकार न हो उसे युद्ध करना पड़ेगा। वह इस घोड़े को पकड़ कर बांध ले। किसी ने घोड़ा नहीं पकड़ा। महर्षि चुणक जी को इस बात का पता चला कि राजा बहुत अभिमानी हो गया है। कहा कि मैं इस राजा के युद्ध को स्वीकार करता हूँ युद्ध शुरू हुआ। मानधाता राजा के पास 72 करोड़ सेना थी। उसके चार भाग करके एक भाग (18 करोड़) सेना से महर्षि चुणक पर आक्रमण कर दिया। दूसरी ओर महर्षि चुणक जी ने अपनी साधना की कमाई से चार पूतलियाँ(बम्ब) बनाई तथा राजा की चारों भाग सेना का विनाश कर दिया।

विशेष:- श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी तथा ब्रह्म व परब्रह्म की भक्ति से पाप तथा पुण्य दोनों का फल भोगना पड़ता है, पुण्य स्वर्ग में तथा पाप नरक में व चैरासी लाख प्राणियों के शरीर में नाना यातनाऐं भोगनी पड़ती हैं। जैसे ज्ञानी आत्मा श्री चुणक जी ने जो ओ3म् नाम के जाप की कमाई की उससे कुछ तो सिद्धि शक्ति (चार पुतलियाँ बनाकर) में समाप्त कर दिया जिससे महर्षि कहलाया। कुछ साधना फल को महास्वर्ग में भोग कर फिर नरक में जाएगा तथा फिर चैरासी लाख प्राणियों के शरीर धारण करके कष्ट पर कष्ट सहन करेगा। जो 72 करोड़ प्राणियों (सैनिकों) का संहार वचन से किया था, उसका भोग भी भोगना होगा। चाहे कोई हथियार से हत्या करे, चाहे वचन रूपी तलवार से दोनों को समान दण्ड प्रभु देता है। जब उस महर्षि चुणक जी का जीव कुत्ते के शरीर में होगा उसके सिर में जख्म होगा, उसमें कीड़े बनकर उन सैनिकों के जीव अपना प्रतिशोध लेंगे। कभी टांग टूटेगी, कभी पिछले पैरों से अर्धंग हो कर केवल अगले पैरों से घिसड़ कर चलेगा तथा गर्मी-सर्दी का कष्ट असहनीय पीड़ा नाना प्रकार से भोगनी ही पड़ेगी।

इसलिए पवित्र गीता जी बोलने वाला ब्रह्म (काल) गीता अ. 7 श्लोक 18 में स्वयं कह रहा है कि ये सर्व ज्ञानी आत्माऐं हैं तो उदार(नेक)। परन्तु पूर्ण परमात्मा की तीन मंत्र की वास्तविक साधना बताने वाला तत्वदर्शी सन्त न मिलने के कारण ये सब मेरी ही (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ मुक्ति (गती) की आस में ही आश्रित रहे अर्थात् मेरी साधना भी अश्रेष्ठ है। इसलिए पवित्र गीता जी अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्व भाव से उस पूर्ण परमात्मा की शरण में चला जा। जिसकी कृपा से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम(सतलोक) को प्राप्त होगा। पवित्र गीता जी को श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके ब्रह्म(काल) ने बोला, फिर कई वर्षों उपरांत पवित्र गीता जी तथा पवित्र चारों वेदों को महर्षि व्यास जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके स्वयं ब्रह्म(क्षर पुरुष) द्वारा लिपिबद्ध भी स्वयं ही किए हैं। इनमें परमात्मा कैसा है, कैसे उसकी भक्ति करनी है तथा क्या उपलब्धि होगी, ज्ञान तो पूर्ण वर्णन है। परन्तु पूजा की विधि केवल ब्रह्म(क्षर पुरुष) अर्थात् ज्योति निरंजन-काल तक की ही है।

पूर्ण ब्रह्म की भक्ति के लिए पवित्र गीता अ. 4 श्लोक 34 में पवित्र गीता बोलने वाला (ब्रह्म) प्रभु स्वयं कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति व प्राप्ति के लिए किसी तत्वज्ञानी सन्त को ढूंढ ले फिर जैसे वह विधि बताएं वैसे कर। पवित्र गीता जी को बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि पूर्ण परमात्मा का पूर्ण ज्ञान व भक्ति विधि मैं नहीं जानता। अपनी साधना के बारे में गीता अ. 8 के श्लोक 13 में कहा है कि मेरी भक्ति का तो केवल एक ‘ओ3म् ‘ अक्षर है जिसका उच्चारण करके अन्तिम स्वांस(त्यजन् देहम्) तक जाप करने से मेरी वाली परमगति को प्राप्त होगा। फिर गीता अ. 7 श्लोक 18 में कहा है कि जिन प्रभु चाहने वाली आत्माओं को तत्वदर्शी सन्त नहीं मिला जो पूर्ण ब्रह्म की साधना जानता हो, इसलिए वे उदारात्माऐं मेरे वाली (अनुत्तमाम्) अति अनुत्तम परमगति में ही आश्रित हैं।(पवित्र गीता जी बोलने वाला प्रभु स्वयं कह रहा है कि मेरी साधना से होने वाली गति अर्थात् मुक्ति भी अति अश्रेष्ठ है।)

अन्य देवताओं (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिवजी) की पूजा बुद्धिहीन ही करते हैं

Jagat Guru Rampal Ji

संत रामपाल जी महाराज

अध्याय 7 के श्लोक 20 में कहा है कि जिसका सम्बन्ध अध्याय 7 के श्लोक 15 से लगातार है - श्लोक 15 में कहा है कि त्रिगुण माया (जो रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी की पूजा तक सीमित हैं तथा इन्हीं से प्राप्त क्षणिक सुख) के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है एैसे असुर स्वभाव को धारण किए हुए नीच व्यक्ति दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझे नहीं भजते। अध्याय 7 के श्लोक 20 में उन-उन भोगों की कामना के कारण जिनका ज्ञान हरा जा चुका है वे अपने स्वभाव वश प्रेरित हो कर अज्ञान अंधकार वाले नियम के आश्रित अन्य देवताओं को पूजते हैं। अध्याय 7 के श्लोक 21 में कहा है कि जो-जो भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ।

अध्याय 7 के श्लोक 22 में कहा है कि वह जिस श्रद्धा से युक्त हो कर जिस देवता का पूजन करता है क्यांेकि उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए कुछ इच्छित भोगों को प्राप्त करते हैं। जैसे मुख्य मन्त्री कहे कि नीचे के अधिकारी मेरे ही नौकर हैं। मैंनें उनको कुछ अधिकार दे रखे हैं जो उनके(अधिकारियों के) ही आश्रित हैं वह लाभ भी मेरे द्वारा ही दिया जाता है, परंतु पूर्ण लाभ नहीं है। अध्याय 7 के श्लोक 23 में वर्णन है कि परंतु उन मंद बुद्धि वालों का वह फल नाशवान होता है। देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं। (मदभक्त) मतावलम्बी जो वेदों में वर्णित भक्ति विधि अनुसार भक्ति करने वाले भक्त भी मुझको प्राप्त होते हैं अर्थात् काल के जाल से कोई बाहर नहीं है। विशेष: अध्याय 7 के श्लोक 20 से 23 में कहा है कि वे जो भी साधना किसी भी पित्र, भूत, देवी-देवता आदि की पूजा स्वभाव वश करते हैं। मैं(ब्रह्म-काल) ही उन मन्द बुद्धि लोगों(भक्तों) को उसी देवता के प्रति आसक्त करता हूँ। वे नादान साधक देवताओं से जो लाभ पाते हैं मैंने(काल ने) ही देवताओं को कुछ शक्ति दे रखी है। उसी के आधार पर उनके(देवताओं के) पूजारी देवताओं को प्राप्त हो जाएंगे। परंतु उन बुद्धिहीन साधकों की वह पूजा चैरासी लाख योनियों में शीघ्र ले जाने वाली है तथा जो मुझे (काल को) भजते हैं वे तप्त शिला पर फिर मेरे महास्वर्ग(ब्रह्म लोक) में चले जाते हैं और उसके बाद जन्म-मरण में ही रहेंगे, मोक्ष प्राप्त नहीं होगा। भावार्थ है कि देवी-देवताओं व ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा माता से भगवान ब्रह्म की साधना अधिक लाभदायक है। भले ही महास्वर्ग मंे गए साधक का स्वर्ग समय एक महाकल्प तक भी हो सकता है, परन्तु महास्वर्ग में शुभ कर्मों का सुख भोगकर फिर नरक तथा अन्य प्राणियों के शरीर में भी कष्ट बना रहेगा, पूर्ण मोक्ष नहीं अर्थात् काल जाल से मुक्ति नहीं।

“पवित्र वेदों अनुसार साधना का परिणाम केवल स्वर्ग-महास्वर्ग प्राप्ति, मुक्ति नहीं”

Jagat Guru Rampal Ji

संत रामपाल जी महाराज

पवित्र गीता अध्याय 9 के श्लोक 20, 21 में कहा है कि जो मनोकामना(सकाम) सिद्धि के लिए मेरी पूजा तीनों वेदों में वर्णित साधना शास्त्र अनुकूल करते हैं वे अपने कर्मों के आधार पर महास्वर्ग में आनन्द मना कर फिर जन्म-मरण में आ जाते हैं अर्थात् यज्ञ चाहे शास्त्रानुकूल भी हो उनका एक मात्र लाभ सांसारिक भोग, स्वर्ग, और फिर नरक व चैरासी लाख जूनियाँ ही हैं। जब तक तीनों मंत्र (ओ3म तथा तत् व सत् सांकेतिक) पूर्ण संत से प्राप्त नहीं होते। अध्याय 9 के श्लोक 22 में कहा है कि जो निष्काम भाव से मेरी शास्त्रानुकूल पूजा करते हैं, उनकी पूजा की साधना की रक्षा मैं स्वयं करता हूँ, मुक्ति नहीं।

“शास्त्र विधि विरुद्ध साधना पतन का कारण”

Jagat Guru Rampal Ji

संत रामपाल जी महाराज

पवित्र गीता अध्याय 9 के श्लोक 23, 24 में कहा है कि जो व्यक्ति अन्य देवताओं को पूजते हैं वे भी मेरी (काल जाल में रहने वाली) पूजा ही कर रहे हैं। परंतु उनकी यह पूजा अविधिपूर्वक है(अर्थात् शास्त्रविरूद्ध है भावार्थ है कि अन्य देवताओं को नहीं पूजना चाहिए)। क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता व स्वामी मैं ही हूँ। वे भक्त मुझे अच्छी तरह नहीं जानते। इसलिए पतन को प्राप्त होते हैं। नरक व चैरासी लाख जूनियों का कष्ट। जैसे गीता अध्याय 3 श्लोक 14-15 में कहा है कि सर्व यज्ञों में प्रतिष्ठित अर्थात् सम्मानित, जिसको यज्ञ समर्पण की जाती है वह परमात्मा (सर्व गतम् ब्रह्म) पूर्ण ब्रह्म है। वही कर्माधार बना कर सर्व प्राणियों को प्रदान करता है। परन्तु पूर्ण सन्त न मिलने तक सर्व यज्ञों का भोग(आनन्द) काल (मन रूप में) ही भोगता है, इसलिए कह रहा है कि मैं सर्व यज्ञों का भोक्ता व स्वामी हूँ।

श्राद्ध निकालने(पितर पूजने) वाले पितर बनेंगे, मुक्ति नहीं

Jagat Guru Rampal Ji

संत रामपाल जी महाराज

गीता अध्याय 9 के श्लोक 25 में कहा है कि देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने (पिण्ड दान करने) वाले भूतों को प्राप्त होते हैं अर्थात् भूत बन जाते हैं, शास्त्रानुकूल(पवित्र वेदों व गीता अनुसार) पूजा करने वाले मुझको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् काल द्वारा निर्मित स्वर्ग व महास्वर्ग आदि में कुछ ज्यादा समय मौज कर लेते हैं।

विशेष:- जैसे कोई तहसीलदार की नौकरी(सेवा-पूजा) करता है तो वह तहसीलदार नहीं बन सकता। हाँ उससे प्राप्त धन से रोजी-रोटी चलेगी अर्थात् उसके आधीन ही रहेगा। ठीक इसी प्रकार जो जिस देव (श्री ब्रह्मा देव, श्री विष्णु देव तथा श्री शिव देव अर्थात् त्रिदेव) की पूजा (नौकरी) करता है तो उन्हीं से मिलने वाला लाभ ही प्राप्त करता है। त्रिगुणमई माया अर्थात् तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) की पूजा का निषेध पवित्र गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 तक में भी है। इसी प्रकार कोई पितरों की पूजा (नौकरी-सेवा) करता है तो पितरों के पास छोटा पितर बन कर उन्हीं के पास कष्ट उठाएगा। इसी प्रकार कोई भूतों(प्रेतों) की पूजा (सेवा) करता है तो भूत बनेगा क्योंकि सारा जीवन जिसमें आशक्तता बनी है अन्त में उन्हीं में मन फंसा रहता है। जिस कारण से उन्हीं के पास चला जाता है। कुछेक का कहना है कि पितर-भूत-देव पूजाऐं भी करते रहेंगे, आप से उपदेश लेकर साधना भी करते रहेंगे। ऐसा नहीं चलेगा। जो साधना पवित्र गीता जी में व पवित्र चारों वेदों में मना है वह करना शास्त्र विरुद्ध हुआ। जिसको पवित्र गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में मना किया है कि जो शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) करते हैं वे न तो सुख को प्राप्त करते हैं न परमगति को तथा न ही कोई कार्य सिद्ध करने वाली सिद्धि को ही प्राप्त करते हैं अर्थात् जीवन व्यर्थ कर जाते हैं। इसलिए अर्जुन तेरे लिए कर्तव्य (जो साधना के कर्म करने योग्य हैं) तथा अकर्तव्य(जो साधना के कर्म नहीं करने योग्य हैं) की व्यवस्था (नियम में) में शास्त्र ही प्रमाण हैं। अन्य साधना वर्जित हैं।

इसी का प्रमाण मार्कण्डे पुराण (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित पृष्ठ 237 पर है, जिसमें मार्कण्डे पुराण तथा ब्रह्म पुराणांक इक्ट्ठा ही जिल्द किया है) में भी है कि एक रूची नाम का साधक ब्रह्मचारी रह कर वेदों अनुसार साधना कर रहा था। जब वह 40(चालीस) वर्ष का हुआ तब उस को अपने चार पूर्वज जो शास्त्र विरुद्ध साधना करके पितर बने हुए थे तथा कष्ट भोग रहे थे, दिखाई दिए। “पितरों ने कहा कि बेटा रूची शादी करवा कर हमारे श्राद्ध निकाल, हम तो दुःखी हो रहे हैं। रूची ऋषि ने कहा पित्रमहो वेद में कर्म काण्ड मार्ग(श्राद्ध, पिण्ड भरवाना आदि) को मूर्खों की साधना कहा है। फिर आप मुझे क्यों उस गलत(शास्त्र विधि रहित) साधना पर लगा रहे हो। पितर बोले बेटा यह बात तो तेरी सत है कि वेद में पितर पूजा, भूत पूजा, देवी-देवताओं की पूजा(कर्म काण्ड) को अविद्या ही कहा है इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है।” इसी उपरोक्त मार्कण्डे पुराण में इसी लेख में पितरों ने कहा कि फिर पितर कुछ तो लाभ देते हैं।

विशेष:- यह अपनी अटकलें पितरों ने लगाई है, वह हमने नहीं पालन करना, क्योंकि पुराणों में आदेश किसी ऋषि विशेष का है जो पितर पूजने, भूत या अन्य देव पूजने को कहा है। परन्तु वेदों में प्रमाण न होने के कारण प्रभु का आदेश नहीं है। इसलिए किसी संत या ऋषि के कहने से प्रभु की आज्ञा का उल्लंघन करने से सजा के भागी होंगे।

एक समय एक व्यक्ति की दोस्ती एक पुलिस थानेदार से हो गई। उस व्यक्ति ने अपने दोस्त थानेदार से कहा कि मेरा पड़ौसी मुझे बहुत परेशान करता है। थानेदार (ैण्भ्ण्व्ण्) ने कहा कि मार लट्ठ, मैं आप निपट लूंगा। थानेदार दोस्त की आज्ञा का पालन करके उस व्यक्ति ने अपने पड़ौसी को लट्ठ मारा, सिर में चोट लगने के कारण पड़ौसी की मृत्यु हो गई। उसी क्षेत्र का अधिकारी होने के कारण वह थाना प्रभारी अपने दोस्त को पकड़ कर लाया, कैद में डाल दिया तथा उस व्यक्ति को मृत्यु दण्ड मिला। उसका दोस्त थानेदार कुछ मदद नहीं कर सका। क्योंकि राजा का संविधान है कि यदि कोई किसी की हत्या करेगा तो उसे मृत्यु दण्ड प्राप्त होगा। उस नादान व्यक्ति ने अपने दोस्त दरोगा की आज्ञा मान कर राजा का संविधान भंग कर दिया। जिससे जीवन से हाथ धो बैठा। ठीक इसी प्रकार पवित्र गीता जी व पवित्र वेद यह प्रभु का संविधान है। जिसमें केवल एक पूर्ण परमात्मा की पूजा का ही विधान है, अन्य देवताओं - पितरों - भूतों की पूजा करना मना है। पुराणों में ऋषियों (थानेदारों) का आदेश है। जिनकी आज्ञा पालन करने से प्रभु का संविधान भंग होने के कारण कष्ट पर कष्ट उठाना पड़ेगा। इसलिए आन उपासना पूर्ण मोक्ष में बाधक है।

तत्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् ही भक्ति प्रारम्भ होती है

Jagat Guru Rampal Ji

संत रामपाल जी महाराज

अध्याय 9 के श्लोक 26, 27,28 का भाव है कि जो भी आध्यात्मिक या सांसारिक काम करें, सब मेरे मतानुसार वेदों में वर्णित पूजा विधि अनुसार ही कर्म करंे, वह उपासक मुझ(काल) से ही लाभान्वित होता है। इसी का वर्णन इसी अध्याय के श्लोक 20, 21 में किया है। अध्याय 9 के श्लोक 29 में भगवान कहते हैं कि मुझे किसी से द्वेष या प्यार नहीं है। परंतु तुरंत ही कह रहे हैं कि जो मुझे प्रेम से भजते हैं वे मुझे प्यारे हैं तथा मैं उनको प्रिय हूँ अर्थात् मैं उनमें और वे मेरे में हैं। राग व द्वेष का प्रत्यक्ष प्रमाण है - जैसे प्रहलाद विष्णु जी के आश्रित थे तथा हिरणाकशिपु द्वेष करता था। तब नृसिंह रूप धार कर भगवान ने अपने प्यारे भक्त की रक्षा की तथा राक्षस हिरणाकशिपु की आँतें निकाल कर समाप्त किया। प्रहलाद से प्रेम तथा हिरणाकशिपु से द्वेष प्रत्यक्ष सिद्ध है।

इसीलिए पवित्र श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय 2 श्लोक 53 में कहा है कि तत्व ज्ञान हो जाने पर नाना प्रकार के भ्रमित करने वाले वचनों से विचलित हुई तेरी बुद्धि एक पूर्ण परमात्मा में दृढता से स्थिर हो जाएगी। तब तू योगी बनेगा अर्थात् तब तेरी अनन्य मन से निःशंस्य हो कर एक पूर्ण प्रभु की भक्ति प्रारम्भ होगी।

पवित्र गीता अध्याय 2 श्लोक 46 में कहा है कि जैसे बहुत बड़े जलाश्य(जिसका जल 10 वर्ष तक वर्षा न हो तो भी समाप्त न हो) के प्राप्त हो जाने के पश्चात् छोटा जलाश्य (जिसका जल एक वर्ष तक वर्षा न हो तो समाप्त हो जाता है) में जितना प्रयोजन रह जाता है। इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा(परम अक्षर पुरुष) के गुणों का ज्ञान तत्व ज्ञान द्वारा हो जाने पर आपकी आस्था अन्य ज्ञानों में तथा अन्य भगवानों(अन्य देवताओं में जैसे ब्रह्मा, विष्णु, शिव में तथा क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म में तथा अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म) में उतनी ही रह जाती है। जैसे छोटा जलाश्य बुरा नहीं लगता परंतु उसकी क्षमता(औकात) का पता लग जाता है कि यह काम चलाऊ सहारा है जो जीवन के लिए पर्याप्त नहीं है तथा बहुत बड़ा जलाश्य प्राप्त होने पर पता चल जाता है कि यदि अकाल गिरेगा तो भी समस्या नहीं आएगी तथा तुरंत छोटे जलाश्य को त्याग कर बड़े जलाश्य पर आश्रित हो जाएगा।

इसी प्रकार तत्वदर्शी संत से पूर्ण परमात्मा के तत्व ज्ञान के द्वारा पूर्णब्रह्म की महिमा से परीचित हो जाने के पश्चात् साधक पूर्ण रूप से(अनन्य मन से) उस पूर्ण परमात्मा(परमेश्वर) पर सर्व भाव से आश्रित हो जाता है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमात्मा की कृपा से ही परम शांति को प्राप्त होगा तथा शाश्वत् स्थान अर्थात् सनातन परम धाम अर्थात् कभी न नष्ट होने वाले सतलोक को प्राप्त होगा।

गीता अध्याय 18 श्लोक 63 में कहा है कि मैंने तेरे से यह रहस्यमय अति गोपनिय(गीता का) ज्ञान कह दिया। अब जैसे तेरा मन चाहे वैसा कर। (क्योंकि यह गीता के अंतिम अध्याय अठारह के अंतिम श्लोक चल रहे हैं इसलिए कहा है।)

गीता ज्ञान दाता ब्रह्म का ईष्ट (पूज्य) देव पूर्णब्रह्म है

Jagat Guru Rampal Ji

संत रामपाल जी महाराज

गीता अध्याय 18 श्लोक 64 में कहा है कि एक सर्व गुप्त से गुप्त ज्ञान एक बार फिर सुन कि यही पूर्ण परमात्मा(जिसके विषय में अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है) मेरा पक्का पूज्य देव है अर्थात् मैं(ब्रह्म क्षर पुरुष) भी उसी की पूजा करता हूँ। यह तेरे हित में कहूँगा। (क्यांेकि यही जानकारी गीता ज्ञान दाता प्रभु ने गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में भी दी है। जिसमें कहा है कि मैं उसी आदि पुरुष परमेश्वर की शरण में हूँ। इसलिए यहाँ कहा कि यही गुप्त से भी अतिगुप्त ज्ञान फिर सुन।)

विशेष - अन्य गीता के अनुवाद कर्ताओं ने गलत अनुवाद किया है। ‘‘इष्टः असि मे दृढ़म् इति‘‘ का अर्थ किया है कि तू मेरा प्रिय है। जबकि अर्थ बनता है

अध्याय 18 का श्लोक 64
सर्वगुह्यतमम्, भूयः, श्रृणु, मे, परमम्, वचः, इष्टः, असि, मे, दृढम्, इति, ततः, वक्ष्यामि, ते, हितम्।। अनुवाद: (सर्वगुह्यतमम्) सम्पूर्ण गोपनीयोंसे अति गोपनीय (मे) मेरे (परमम्) परम रहस्ययुक्त (हितम्) हितकारक (वचः) वचन (ते) तुझे (भूयः) फिर (वक्ष्यामि) कहूँगा (ततः) इसे (श्रृणु) सुन (इति) यह पूर्ण ब्रह्म (मे) मेरा (दृढम्) पक्का निश्चित (इष्टः) पूज्यदेव (असि) है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 65 में गीता ज्ञान दाता प्रभु(काल भगवान क्षर पुरुष) कह रहा है कि यदि मेरी शरण में रहना है तो मेरी पूजा अनन्य मन से कर। अन्य देवताओं(ब्रह्मा, विष्णु, शिव) तथा पितरों आदि की पूजा त्याग दे। फिर मुझे ही प्राप्त ही होगा अर्थात् ब्रह्म लोक बने महास्वर्ग में चला जाएगा। मैं तुझे सत प्रतिज्ञा करता हूँ। तू मेरा प्रिय है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में कहा है कि यदि (एकम्) उस अद्वितीय अर्थात् जिसकी तुलना में अन्य न हो उस एक सर्व शक्तिमान, सर्व ब्रह्मण्डों के रचनहार, सर्व के धारण-पोषण करने वाले परमेश्वर की शरण में जाना है तो मेरे स्तर की साधना जो ¬ नाम के जाप की कमाई तथा अन्य धार्मिक शास्त्र अनुकूल यज्ञ साधनाएँ मुझ में छोड़(जिसे तूं मेरे ऋण से मुक्त हो जाएगा)। उस (एकम्) अद्वितीय अर्थात् जिसका कोई सानी नहीं है, की शरण में(व्रज) जा। मैं तुझे सर्व पापों(काल के ऋणों) से मुक्त कर दूंगा, तू चिंता मत कर।

विशेष - गीता के अन्य अनुवाद कर्ताओं ने श्लोक 66 का अनुवाद गलत किया है। व्रज का अर्थ आना किया है जबकि व्रज का अर्थ जाना होता है। कृप्या वास्तविक अनुवाद निम्न पढ़ें -

अध्याय 18 का श्लोक 66
सर्वधर्मान्, परित्यज्य, माम्, एकम्, शरणम्, व्रज,
अहम्, त्वा, सर्वपापेभ्यः, मोक्षयिष्यामि, मा, शुचः।।

अनुवाद: (माम्) मेरी (सर्वधर्मान्) सम्पूर्ण पूजाओंको (परित्यज्य) त्यागकर तू केवल (एकम्) एक उस पूर्ण परमात्मा की (शरणम्) शरणमें (व्रज) जा। (अहम्) मैं (त्वा) तुझे (सर्वपापेभ्यः) सम्पूर्ण पापोंसे (मोक्षयिष्यामि) छुड़वा दूँगा तू (मा,शुचः) शोक मत कर।

रजगुण श्री ब्रह्मा जी, सतगुण श्री विष्णु जी तथा तमगुण श्री शिव जी त्रिदेवों की पूजा व्यर्थ कही है

Jagat Guru Rampal Ji

संत रामपाल जी महाराज

यही गीता ज्ञान दाता प्रभु (श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तक में) कह रहा है कि तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) की पूजा करने वालांे का ज्ञान हरा जा चुका है, ये तो इनसे ऊपर मेरी भक्ति पूजा भी नहीं करते। तीनों प्रभुओं (ब्रह्मा-विष्णु-शिव) तक की साधना करने वाले राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दुष्कर्म करने वाले मूर्ख इन तीनों से ऊपर मुझ ब्रह्म की पूजा भी नहीं करते।

श्रीमद्भगवत गीता के ज्ञान दाता प्रभु ने अध्याय 7 श्लोक 18 में अपनी भक्ति को भी अनुत्तम (घटिया) कहा है।

इसलिए अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 व 66 में किसी अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है।

जिस समय गीता जी का ज्ञान बोला जा रहा था, उससे पहले न तो अठारह पुराण थे और न ही कोई ग्यारह उपनिषद् व छः शास्त्र ही थे। जो बाद में ऋषियों ने अपने-अपने अनुभवों की पुस्तकें रची हैं। उस समय केवल पवित्र चारों वेद ही शास्त्र रूप में प्रमाणित थे और उन्हीं पवित्र चारों वेदों का सारांश पवित्र गीता जी में वर्णित है।

इन सभी विषयों के पूर्ण विवरण के लिए पढ़िए पुस्तक गहरी नज़र गीता में तथा अध्यात्मिक ज्ञान गंगा