आज कलियुग में भक्त समाज के सामने पूर्ण गुरु की पहचान करना सबसे जटिल प्रश्न बना हुआ है। लेकिन इसका बहुत ही लघु और साधारण–सा उत्तर है कि जो गुरु शास्त्रो के अनुसार भक्ति करता है और अपने अनुयाईयों अर्थात शिष्यों द्वारा करवाता है वही पूर्ण संत है। चूंकि भक्ति मार्ग का संविधान धार्मिक शास्त्र जैसे – कबीर साहेब की वाणी, नानक साहेब की वाणी, संत गरीबदास जी महाराज की वाणी, संत धर्मदास जी साहेब की वाणी, वेद, गीता, पुराण, कुरआन, पवित्र बाईबल आदि हैं। जो भी संत शास्त्रो के अनुसार भक्ति साधना बताता है और भक्त समाज को मार्ग दर्शन करता है तो वह पूर्ण संत है अन्यथा वह भक्त समाज का घोर दुश्मन है जो शास्त्रो के विरूद्ध साधना करवा रहा है। इस अनमोल मानव जन्म के साथ खिलवाड़ कर रहा है। ऐसे गुरु या संत को भगवान के दरबार में घोर नरक में उल्टा लटकाया जाएगा।
उदाहरण के तौर पर जैसे कोई अध्यापक सलेबस (पाठयक्रम) से बाहर की शिक्षा देता है तो वह उन विद्यार्थियों का दुश्मन है।
गीता अध्याय नं. 7 का श्लोक नं. 15
न, माम्, दुष्कतिनः, मूढाः, प्रपद्यन्ते, नराधमाः,
मायया, अपहृतज्ञानाः, आसुरम्, भावम्, आश्रिताः।।
अनुवाद: माया के द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे आसुर स्वभावको धारण किये हुए मनुष्यों में नीच दूषित कर्म करनेवाले मूर्ख मुझको नहीं भजते अर्थात् वे तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की साधना ही करते रहते हैं।
यजुर्वेद अध्याय न. 40 श्लोक न. 10 (संत रामपाल दास जी द्वारा भाषा-भाष्य)
अन्यदेवाहुःसम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्, इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे।।10।।
हिन्दी अनुवाद:- परमात्मा के बारे में सामान्यत निराकार अर्थात् कभी न जन्मने वाला कहते हैं। दूसरे आकार में अर्थात् जन्म लेकर अवतार रूप में आने वाला कहते हैं। जो टिकाऊ अर्थात् पूर्णज्ञानी अच्छी प्रकार सुनाते हैं उसको इस प्रकार सही तौर पर वही समरूप अर्थात् यथार्थ रूप में भिन्न-भिन्न रूप से प्रत्यक्ष ज्ञान कराते हैं।
गीता अध्याय नं. 4 का श्लोक नं. 34
तत्, विद्धि, प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन, सेवया,
उपदेक्ष्यन्ति, ते, ज्ञानम्, ज्ञानिनः, तत्वदर्शिनः।।
अनुवाद: उसको समझ उन पूर्ण परमात्मा के ज्ञान व समाधान को जानने वाले संतोंको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे परमात्म तत्व को भली भाँति जाननेवाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्वज्ञानका उपदेश करेंगे।
हुक्का, शराब, बीयर, तम्बाखु, बीड़ी, सिगरेट, हुलास सुंघना, गुटखा, मांस, अण्डा, सुल्फा, अफीम, गांजा और अन्य नशीली चीजों का सेवन तो दूर रहा किसी को नशीली वस्तु लाकर भी नहीं देनी है। बन्दी छोड़ गरीबदास जी महाराज इन सभी नशीली वस्तुओं को बहुत बुरा बताते हुए अपनी वाणी में कहते हैं कि -
सुरापान मद्य मांसाहारी, गमन करै भोगैं पर नारी। सतर जन्म कटत हैं शीशं, साक्षी साहिब है जगदीशं।।
पर द्वारा स्त्री का खोलै, सतर जन्म अंधा होवै डोलै। मदिरा पीवै कड़वा पानी, सत्तर जन्म श्वान के जानी।।
गरीब, हुक्का हरदम पिवते, लाल मिलावैं धूर। इसमें संशय है नहीं, जन्म पिछले सूर।।1।।
गरीब, सो नारी जारी करै, सुरा पान सौ बार। एक चिलम हुक्का भरै, डुबै काली धार।।2।।
गरीब, सूर गऊ कुं खात है, भक्ति बिहुनें राड। भांग तम्बाखू खा गए, सो चाबत हैं हाड।।3।।
गरीब, भांग तम्बाखू पीव हीं, सुरा पान सैं हेत। गौस्त मट्टी खाय कर, जंगली बनें प्रेत।।4।।
गरीब, पान तम्बाखू चाब हीं, नास नाक में देत। सो तो इरानै गए, ज्यूं भड़भूजे का रेत।।5।।
गरीब, भांग तम्बाखू पीव हीं, गोस्त गला कबाब। मोर मग कूं भखत हैं, देगें कहां जवाब।। 6।।
किसी प्रकार का कोई व्रत नहीं रखना है। कोई तीर्थ यात्रा नहीं करनी, न कोई गंगा स्नान आदि करना, न किसी अन्य धार्मिक स्थल पर स्नानार्थ व दर्शनार्थ जाना है। किसी मन्दिर व ईष्ट धाम में पूजा व भक्ति के भाव से नहीं जाना कि इस मन्दिर में भगवान है। भगवान कोई पशु तो है नहीं कि उसको पुजारी जी ने मन्दिर में बांध रखा है। भगवान तो कण–कण में व्यापक है। ये सभी साधनाएँ शास्त्रो के विरुद्ध हैं।
ऐसे संतों की तलाश करो जो शास्त्रो के अनुसार पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब की भक्ति करते व बताते हों। फिर जैसे वे कहे केवल वही करना, अपनी मन मानी नहीं करना।
सामवेद संख्या नं. 1400 उतार्चिक अध्याय नं. 12 खण्ड नं. 3 श्लोक नं. 5(संत
रामपाल दास द्वारा भाषा-भाष्य) :-
भद्रा वस्त्रा समन्या3वसानो महान् कविर्निवचनानि शंसन्।
आ वच्यस्व चम्वोः पूयमानो विचक्षणो जागविर्देववीतौ।।5।।
हिन्दी:- चतुर व्यक्तियों ने अपने वचनों द्वारा पूर्ण परमात्मा (पूर्ण ब्रह्म) की पूजा का सत्यमार्ग दर्शन न करके अमत के स्थान पर आन उपासना (जैसे भूत पूजा, पितर पूजा, श्राद्ध निकालना, तीनों गुणों की पूजा (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शंकर) तथा ब्रह्म-काल की पूजा मन्दिर-मसजिद-गुरूद्वारों-चर्चों व तीर्थ-उपवास तक की उपासना) रूपी फोड़े व घाव से निकले मवाद को आदर के साथ आचमन करा रहे होते हैं। उसको परमसुखदायक पूर्ण ब्रह्म कबीर सहशरीर साधारण वेशभूषा में (‘‘वस्त्रा का अर्थ है वेशभूषा-संत भाषा में इसे चोला भी कहते हैं। जैसे कोई संत शरीर त्याग जाता है तो कहते हैं कि महात्मा तो चोला छोड़ गए।‘‘) सत्यलोक वाले शरीर के समान दूसरा तेजपुंज का शरीर धारण करके आम व्यक्ति की तरह जीवन जी कर कुछ दिन संसार में रह कर अपनी शब्द-साखियों के माध्यम से सत्यज्ञान को वर्णन करके पूर्ण परमात्मा के छुपे हुए वास्तविक सत्यज्ञान तथा भक्ति को जाग्रत करते हैं।
गीता अध्याय नं. 16 का श्लोक नं. 23
यः, शास्त्रविधिम्, उत्सज्य, वर्तते, कामकारतः, न, सः,
सिद्धिम्, अवाप्नोति, न, सुखम्, न, पराम्, गतिम्।।
अनुवाद: जो पुरुष शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है वह न सिद्धि को प्राप्त होता है न परम गति को और न सुख को ही।
गीता अध्याय नं. 6 का श्लोक नं. 16
न, अति, अश्र्नतः, तु, योगः, अस्ति, न, च, एकान्तम्,
अनश्र्नतः, न, च, अति, स्वप्नशीलस्य, जाग्रतः, न, एव, च, अर्जुन।।
अनुवाद: हे अर्जुन! यह योग अर्थात् भक्ति न तो बहुत खाने वाले का और न बिल्कुल न खाने वाले का न एकान्त स्थान पर आसन लगाकर साधना करने वाले का तथा न बहुत शयन करने के स्वभाव वाले का और न सदा जागने वाले का ही सिद्ध होता है।
पूजैं देई धाम को, शीश हलावै जो। गरीबदास साची कहै, हद काफिर है सो।।
कबीर, गंगा काठै घर करै, पीवै निर्मल नीर। मुक्ति नहीं हरि नाम बिन, सतगुरु कहैं कबीर।।
कबीर, तीर्थ कर-कर जग मूवा, उडै पानी न्हाय। राम ही नाम ना जपा, काल घसीटे जाय।।
गरीब, पीतल ही का थाल है, पीतल का लोटा। जड़ मूरत को पूजतें, आवैगा टोटा।।
गरीब, पीतल चमच्चा पूजिये, जो थाल परोसै। जड़ मूरत किस काम की, मति रहो भरोसै।।
कबीर, पर्वत पर्वत मैं फिर्या, कारण अपने राम। राम सरीखे जन मिले, जिन सारे सब काम।।
किसी प्रकार की पितर पूजा, श्राद्ध निकालना आदि कुछ नहीं करना है। भगवान श्री कृष्ण जी ने भी इन पितरों की व भूतों की पूजा करने से साफ मना किया है। गीता जी के अध्याय नं. 9 के श्लोक नं. 25 में कहा है कि -
यान्ति, देवव्रताः, देवान्, पितऋन्, यान्ति, पितव्रताः।
भूतानि, यान्ति, भूतेज्याः, मद्याजिनः, अपि, माम्।
अनुवाद: देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मतानुसार पूजन करने वाले भक्त मुझसे ही लाभान्वित होते हैं।
बन्दी छोड़ गरीबदास जी महाराज और कबीर साहिब जी महाराज भी कहते हैं ।
‘गरीब, भूत रमै सो भूत है, देव रमै सो देव। राम रमै सो राम है, सुनो सकल सुर भेव।।‘‘
इसलिए उस(पूर्ण परमात्मा) परमेश्वर की भक्ति करो जिससे पूर्ण मुक्ति होवे। वह परमात्मा पूर्ण ब्र सतपुरुष(सत कबीर) है। इसी का प्रमाण गीता जी के अध्याय नं. 18 के श्लोक नं. 46 में है।
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यच्र्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।46।।
अनुवाद: जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।।63।।
गीता अध्याय नं. 18 का श्लोक नं. 62:--
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।62।।
अनुवाद: हे भरतवंशोभ्द्रव अर्जुन! तू सर्वभावसे उस ईश्वरकी ही शरणमें चला जा। उसकी कृपासे तू परम शान्ति (संसारसे सर्वथा उपरति) को और अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जायगा।
सर्वभाव का तात्पर्य है कि कोई अन्य पूजा न करके मन-कर्म-वचन से एक परमेश्वर में आस्था रखना।
गीता अध्याय नं. 8 का श्लोक नं. 22:--
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।22।।
अनुवाद: हे पृथानन्दन अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जिसके अन्तर्गत हैं और जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, वह परम पुरुष परमात्मा तो अनन्यभक्तिसे प्राप्त होनेयोग्य है।
अनन्य भक्ति का तात्पर्य है एक परमेश्वर (पूर्ण ब्रह्म) की भक्ति करना, दूसरे देवी-देवताओं अर्थात् तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की नहीं। गीता जी के अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 1 से 4:--
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 1
ऊध्र्वमूलम्, अधःशाखम्, अश्वत्थम्, प्राहुः, अव्ययम्,
छन्दांसि, यस्य, पर्णानि, यः, तम्, वेद, सः, वेदवित्।।1।।
अनुवाद: ऊपर को जड़ वाला नीचे को शाखा वाला अविनाशी विस्तृत संसार रूपी पीपल का वृक्ष है, जिसके छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ, पत्ते कहे हैं, उस संसार रूप वृक्ष को जो इस प्रकार जानता है। वह पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है।
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 2
अधः, च, ऊध्र्वम्, प्रसृताः, तस्य, शाखाः, गुणप्रवृद्धाः, विषयप्रवालाः,
अधः, च, मूलानि, अनुसन्ततानि, कर्मानुबन्धीनि, मनुष्यलोके।।2।।
अनुवाद: उस वृक्षकी नीचे और ऊपर तीनों गुणों ब्रह्मा-रजगुण, विष्णु-सतगुण, शिव-तमगुण रूपी फैली हुई विकार काम क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार रूपी कोपल डाली ब्रह्मा, विष्णु, शिव ही जीवको कर्मोमें बाँधने की भी जड़ें अर्थात् मूल कारण हैं तथा मनुष्यलोक, स्वर्ग, नरक लोक पृथ्वी लोक में नीचे (चैरासी लाख जूनियों में) ऊपर व्यस्थित किए हुए हैं।
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 3
न, रूपम्, अस्य, इह, तथा, उपलभ्यते, न, अन्तः, न, च, आदिः, न, च,
सम्प्रतिष्ठा, अश्वत्थम्, एनम्, सुविरूढमूलम्, असङ्गशस्त्रोण, दढेन, छित्वा।। 3।।
अनुवाद: इस रचना का न शुरूवात तथा न अन्त है न वैसा स्वरूप पाया जाता है तथा यहाँ विचार काल में अर्थात् मेरे द्वारा दिया जा रहा गीता ज्ञान में पूर्ण जानकारी मुझे भी नहीं है क्योंकि सर्वब्रह्मण्डों की रचना की अच्छी तरह स्थिति का मुझे भी ज्ञान नहीं है इस अच्छी तरह स्थाई स्थिति वाला मजबूत स्वरूपवाले निर्लेप तत्वज्ञान रूपी दढ़ शस्त्र से अर्थात् निर्मल तत्वज्ञान के द्वारा काटकर अर्थात् निरंजन की भक्ति को क्षणिक जानकर। (3)
गीता अध्याय नं. 15 का श्लोक नं. 4
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रतत्ति प्रसता पुराणी।।4।।
अनुवाद: उसके बाद उस परमपद परमात्मा की खोज करनी चाहिये। जिसको प्राप्त हुए मनुष्य फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिससे अनादिकालसे चली आनेवाली यह सृष्टि विस्तारको प्राप्त हुई है, उस आदि पुरुष परमात्माके ही मैं शरण हूँ।
इस प्रकार स्वयं भगवान श्री कृषण ने इन्द्र जो देवी-देवताओं का राजा है कि पूजा भी छुड़वा कर उस परमात्मा की भक्ति करने के लिए ही प्रेरणा दी थी। जिस कारण उन्होंने गोवर्धन पर्वत को उठा कर इन्द्र के कोप से ब्रज वासियों की रक्षा की।
गरीब, इन्द्र चढ़ा ब्रिज डुबोवन, भीगा भीत न लेव।
इन्द्र कढाई होत जगत में, पूजा खा गए देव।।
कबीर, इस संसार को, समझाऊँ कै बार।
पूँछ जो पकड़ै भेढ की, उतरा चाहै पार।।
जी की आज्ञा के बिना घर में किसी भी प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान नहीं करवाना है। जैसे बन्दी छोड़ अपनी वाणी में कहते हैं कि:-
”गुरु बिन यज्ञ हवन जो करहीं, मिथ्या जावे कबहु नहीं फलहीं।“
कबीर, गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन दोनों निष्फल हैं, पूछो वेद पुराण।।
आपने खेत में बनी मंढी या किसी खेड़े आदि की या किसी अन्य देवता की समाध नहीं पूजनी है। समाध चाहे किसी की भी हो बिल्कुल नहीं पूजनी है। अन्य कोई उपासना नहीं करनी है। यहाँ तक कि तीनों गुणों(ब्रह्मा, विष्णु, शिव) की पूजा भी नहीं करनी है। केवल गुरु जी के बताए अनुसार ही करना है।
गीता अध्याय नं. 7 का श्लोक नं. 15
न, माम्, दुष्कतिनः, मूढाः, प्रपद्यन्ते, नराधमाः,
मायया, अपहृतज्ञानाः, आसुरम्, भावम्, आश्रिताः।।
अनुवाद: मायाके द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है ऐसे आसुर स्वभावको धारण किये हुए मनुष्य नीच दुषित कर्म करनेवाले मूर्ख मुझको नहीं भजते अर्थात् वे तीनों गुणों (रजगुण-ब्रह्मा, सतगुण-विष्णु, तमगुण-शिव) की साधना ही करते रहते हैं। कबीर, माई मसानी शेढ शीतला, भैरव भूत हनुमंत। परमात्मा उनसे दूर है, जो इनको पूजंत।। कबीर, सौ वर्ष तो गुरु की सेवा, एक दिन आन उपासी। वो अपराधी आत्मा, परै काल की फांसी।। गुरु को तजै भजै जो आना। ता पसुवा को फोकट ज्ञाना।।
कर्म कष्ट (संकट) होने पर कोई अन्य ईष्ट देवता की या माता मसानी आदि की पूजा कभी नहीं करनी है। न किसी प्रकार की बुझा पड़वानी है। केवल बन्दी छोड़ कबीर साहिब को पूजना है जो सभी दु:खों को हरने वाले संकट मोचन हैं।
सामवेद संख्या न. 822 उतार्चिक अध्याय 3 खण्ड न. 5 श्लोक न. 8 (संत रामपाल
दास द्वारा भाषा-भाष्य) :-
मनीषिभिः पवते पूव्र्यः कविनर्भिर्यतः परि कोशां असिष्यदत्।
त्रितस्य नाम जनयन्मधु क्षरन्निन्द्रस्य वायुं सख्याय वर्धयन्।।8।।
हिन्दी:-सनातन अर्थात् अविनाशी कबीर परमेश्वर हृदय से चाहने वाले श्रद्धा से भक्ति करने वाले भक्तात्मा को तीन मन्त्र उपेदश देकर पवित्र करके जन्म व मृत्यु से रहित करता है तथा उसके प्राण अर्थात् जीवन-स्वांसों को जो संस्कारवश अपने मित्र अर्थात् भक्त के गिनती के डाले हुए होते हैं को अपने भण्डार से पूर्ण रूप से बढ़ाता है। जिस कारण से परमेश्वर के वास्तविक आनन्द को अपने आशीर्वाद प्रसाद से प्राप्त करवाता है।
कबीर, देवी देव ठाढे भये, हमको ठौर बताओ। जो मुझ(कबीर) को पूजैं नहीं, उनको लूटो खाओ।।
कबीर, काल जो पीसै पीसना, जोरा है पनिहार। ये दो असल मजूर हैं, सतगुरु के दरबार।।
कहीं पर और किसी को दान रूप में कुछ नहीं देना है। न पैसे, न बिना सिला हुआ कपड़ा आदि कुछ नहीं देना है। यदि कोई दान रूप में कुछ मांगने आए तो उसे खाना खिला दो, चाय, दूध, लस्सी, पानी आदि पिला दो परंतु देना कुछ भी नहीं है। न जाने वह भिक्षुक उस पैसे का दुरूपयोग करे। जैसे एक व्यक्ति ने किसी भिखारी को उसकी झूठी कहानी जिसमें वह बता रहा था कि मेरे बच्चे ईलाज बिना तड़फ रहे हैं। कुछ पैसे देने की कृपा करें को सुनकर भावनावस होकर 100 रु दे दिए। वह भिखारी पहले पाव शराब पीता था उस दिन उसने आधा बोतल शराब पीया और अपनी पत्नी को पीट डाला। उसकी पत्नी ने बच्चों सहित आत्म हत्या कर ली। आप द्वारा किया हुआ वह दान उस परिवार के नाश का कारण बना। यदि आप चाहते हो कि ऐसे दु:खी व्यक्ति की मदद करें तो उसके बच्चों को डॉक्टर से दवाई दिलवा दें, पैसा न दें।
कबीर, गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान। गुरु बिन दोनों निष्फल हैं, पूछो वेद पुरान।।
ऐसे व्यक्ति का झूठा नहीं खाना है जो शराब, मांस, तम्बाखु, अण्डा, बीयर, अफीम, गांजा आदि का सेवन करता हो।
यदि परिवार में किसी की मौत हो जाती है, चिता में अग्नि कोई भी दे सकता है, घर का या अन्य तथा अग्नि प्रज्वलित करते समय मंगलाचरण बोल दें। तो उसके फूल आदि कुछ नहीं उठाने हैं, यदि उस स्थान को साफ करना अनिवार्य है तो उन अस्थियों को उठाकर स्वयं ही किसी स्थान पर चलते पानी में बहा दें। उस समय मंगलाचरण उच्चारण कर दें। न पिंड आदि भरवाने हैं, न तेराहमी, छः माही, बरसोधी, पिंड भी नहीं भरवाने हैं तथा श्राद्ध आदि कुछ नहीं करना है। किसी भी अन्य व्यक्ति से हवन आदि नहीं करवाना है। सम्बन्धी तथा रिश्तेदारों आदि जो शोक व्यक्त करने आए उनके लिए कोई भी एक दिन नियुक्त करें। उस दिन प्रतिदिन करने वाला नित्य नियम करें, ज्योति जागत करें, फिर सर्व को खाना खिलाऐं। यदि आपने उसके (मरने वाले के) नाम पर कुछ धर्म करना है तो अपने गुरुदेव जी की आज्ञा ले कर बन्दी छोड़ गरीबदास जी महाराज की अमतमयी वाणी का अखण्ड पाठ करवाना चाहिए। यदि पाठ करने की आज्ञा न मिले तो परिवार के उपदेशी भक्त चार दिन या सात दिन घर में एक अखण्ड जोत देशी घी की जलाऐ तथा ब्रह्म गायत्री मन्त्र प्रतिदिन चार बार करें तथा तीन या एक बार के मन्त्र का दान संकल्प सतलोक वासी को करें। जैसा उचित समझे एक, दो, तीन तक मन्त्र के जाप का फल उसे दान करें। प्रतिदिन की तरह ज्योति व आरती, नाम स्मरण करते रहना है, यह याद रखते हुए किः-
कबीर, साथी हमारे चले गए, हम भी चालन हार। कोए कागज में बाकी रह रही, ताते लाग रही वार।। कबीर, देह पड़ी तो क्या हुआ, झूठा सभी पटीट। पक्षी उड़या आकाश कूं, चलता कर गया बीट।।
बच्चे के जन्म पर कोई छटी आदि नहीं मनानी है। सुतक के कारण प्रतिदिन की तरह करने वाली पूजा, भक्ति, आरती, ज्योति जगाना आदि बंद नहीं करनी है।
इसी संदर्भ में एक संक्षिप्त कथा बताता हूँ कि एक व्यक्ति की शादी के दस वर्ष पश्चात् पुत्र हुआ था। पुत्र की खुशी में उसने बहुत ही खुशी मनाई। बीस-पच्चीस गाँवों को भोजन के लिए आमन्त्रिात किया और बहुत ही गाना-बजाना हुआ अर्थात् काफी पैसा खर्च किया। फिर एक वर्ष के बाद उस पुत्र का देहान्त हो जाता है। फिर वही परिवार टक्कर मार कर रोता है और अपने दुर्भाग्य को कोसता है। इसलिए कबीर साहेब हमें बताते हैं कि:-
कबीर, बेटा जाया खुशी हुई, बहुत बजाये थाल। आना जाना लग रहा, ज्यों कीड़ी का नाल।।
कबीर, पतझड़ आवत देख कर, बन रोवै मन माहिं। ऊंची डाली पात थे, अब पीले हो हो जाहिं।।
कबीर, पात झडंता यूं कहै, सुन भई तरूवर राय। अब के बिछुड़े नहीं मिला, न जाने कहां गिरेंगे जाय।
कबीर, तरूवर कहता पात से, सुनों पात एक बात। यहाँ की याहे रीति है, एक आवत एक जात।।
बच्चे के किसी देई धाम पर बाल उतरवाने नहीं जाना है। जब देखो बाल बड़े हो गए, कटवा कर फैंक दो। एक मन्दिर में देखा कि श्रद्धालु भक्त अपने लड़के या लड़कियों के बाल उतरवाने आए। वहाँ पर उपस्थित नाई ने बाहर के रेट से तीन गुना पैसे लीये और एक कैंची भर बाल काट कर मात–पिता को दे दिए। उन्होंने श्रद्धा से मन्दिर में चढ़ाए। पुजारी ने एक थैले में डाल लिए। रात्री को उठा कर दूर एकांत स्थान पर फैंक दिए। यह केवल नाटक बाजी है। क्यों न पहले की तरह स्वाभाविक तरीके से बाल उतरवाते रहें तथा बाहर डाल दें। परमात्मा नाम से प्रसन्न होता है पाखण्ड से नहीं।
नाम(उपदेश) को केवल दु:ख निवारण की दृष्टि कोण से नहीं लेना चाहिए बल्कि आत्म कल्याण के लिए लेना चाहिए। फिर सुमिरण से सर्व सुख अपने आप आ जाते हैं।
"कबीर, सुमिरण से सुख होत है, सुमिरण से दुःख जाए।
कहैं कबीर सुमिरण किए, सांई माहिं समाय।।"
पराई स्त्री को माँ–बेटी–बहन की दृष्टि से देखना चाहिए। व्याभीचार महापाप है। जैसे:--
गरीब, पर द्वारा स्त्री का खोलै। सत्तर जन्म अन्धा हो डोलै।।
सुरापान मद्य मांसाहारी। गवन करें भोगैं पर नारी।। सत्तर जन्म कटत हैं शीशं। साक्षी साहिब है जगदीशं।।
पर नारी ना परसियों, मानो वचन हमार। भवन चर्तुदश तास सिर, त्रिलोकी का भार।।
पर नारी ना परसियो, सुनो शब्द सलतंत। धर्मराय के खंभ से, अर्धमुखी लटकंत।।
अपने गुरु की निंदा भूल कर भी न करें और न ही सुनें। सुनने से अभिप्राय है यदि कोई आपके गुरु जी के बारे में मिथ्या बातें करें तो आपने लड़ना नहीं है बल्कि यह समझना चाहिए कि यह बिना विचारे बोल रहा है अर्थात् झूठ कह रहा है।
गुरु की निंदा सुनै जो काना। ताको निश्चय नरक निदाना।।
अपने मुख निंदा जो करहीं। शुकर श्वान गर्भ में परहीं।।
निन्दा तो किसी की भी नहीं करनी है और न ही सुननी है। चाहे वह आम व्यक्ति ही क्यों न हो। कबीर साहेब कहते हैं कि -
”तिनका कबहू न निन्दीये, जो पांव तले हो। कबहु उठ आखिन पड़े, पीर घनेरी हो।।“
सतसंग में समय मिलते ही आने की कोशिश करे तथा सतसंग में नखरे(मान–बड़ाई) करने नहीं आवे। अपितु अपने आपको एक बिमार समझ कर आवे। जैसे बिमार व्यक्ति चाहे कितने ही पैसे वाला हो, चाहे उच्च पदवी वाला हो जब हस्पताल में जाता है तो उस समय उसका उद्देश्य केवल रोग मुक्त होना होता है। जहाँ डॉक्टर लेटने को कहे लेट जाता है, बैठने को कहे बैठ जाता है, बाहर जाने का निर्देश मिले बाहर चला जाता है। फिर अन्दर आने के लिए आवाज आए चुपके से अन्दर आ जाता है। ठीक इसी प्रकार यदि आप सतसंग में आते हो तो आपको सतसंग में आने का लाभ मिलेगा अन्यथा आपका आना निष्फल है। सतसंग में जहाँ बैठने को मिल जाए वहीं बैठ जाए, जो खाने को मिल जाए उसे परमात्मा कबीर साहिब की रजा से प्रसाद समझ कर खा कर प्रस चित्त रहे।
कबीर, संत मिलन कूं चालिए, तज माया अभिमान। जो-जो कदम आगे रखे, वो ही यज्ञ समान।।
कबीर, संत मिलन कूं जाईए, दिन में कई-कई बार। आसोज के मेह ज्यों, घना करे उपकार।।
कबीर, दर्शन साधु का, परमात्मा आवै याद। लेखे में वोहे घड़ी, बाकी के दिन बाद।।
कबीर, दर्शन साधु का, मुख पर बसै सुहाग। दर्श उन्हीं को होत हैं, जिनके पूर्ण भाग।।
यदि कहीं पर पाठ या सतसंग चल रहा हो या वैसे गुरु जी के दर्शनार्थ जाते हों तो सर्व प्रथम गुरु जी को दण्डवत्(लम्बा लेट कर) प्रणाम करना चाहिए बाद में सत ग्रन्थ साहिब व तसवीरें जैसे साहिब कबीर की मूर्ति – गरीबदास जी की व स्वामी राम देवानन्द जी व गुरु जी की मूर्ति को प्रणाम करें जिससे सिफर्ल भावना बनी रहेगी। मूर्ति पूजा नहीं करनी है। केवल प्रणाम करना पूजा में नहीं आता यह तो भक्त की श्रद्धा को बनाए रखने में सहयोग देता है। पूजा तो वक्त गुरु व नाम मन्त्र की करनी है जो पार लगाएगा।
कबीर, गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागुं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविन्द दियो मिलाय।।
कबीर, गुरु बड़े हैं गोविन्द से, मन में देख विचार। हरि सुमरे सो रह गए, गुरु भजे होय पार।।
कबीर, हरि के रूठतां, गुरु की शरण में जाय।कबीर गुरु जै रूठजां, हरि नहीं होत सहाय।।
कबीर, सात समुन्द्र की मसि करूं, लेखनि करूं बनिराय। धरती का कागज करूं, तो गुरु गुन लिखा न जाय।।
अण्डा व मांस भक्षण व जीव हिंसा नहीं करनी है। यह महा पाप होता है। जैसे साहेब कबीर जी महाराज व गरीबदास जी महाराज ने बताया है:-
कबीर, जीव हने हिंसा करे, प्रकट पाप सिर होय। निगम पुनि ऐसे पाप तें, भिस्त गया नहिं कोय।।1।।
कबीर, तिलभर मछली खायके, कोटि गऊ दे दान। काशी करौंत ले मरे, तो भी नरक निदान।।2।।
कबीर, बकरी पाती खात है, ताकी काढी खाल। जो बकरीको खात है, तिनका कौन हवाल।।3।।
कबीर, गला काटि कलमा भरे, कीया कहै हलाल। साहब लेखा मांगसी, तब होसी कौन हवाल।।4।।
कबीर, दिनको रोजा रहत हैं, रात हनत हैं गाय। यह खून वह वंदगी, कहुं क्यों खुशी खुदाय।।5।।
कबीर, कबिरा तेई पीर हैं, जो जानै पर पीर। जो पर पीर न जानि है, सो काफिर बेपीर।।6।।
कबीर, खूब खाना है खीचडी, मांहीं परी टुक लौन। मांस पराया खायकै, गला कटावै कौन।।7।।
कबीर, मुसलमान मारैं करदसो, हिंदू मारैं तरवार। कहै कबीर दोनूं मिलि, जैहैं यमके द्वार।।8।।
कबीर, मांस अहारी मानव, प्रत्यक्ष राक्षस जानि। ताकी संगति मति करै, होइ भक्ति में हानि।।9।।
कबीर, मांस खांय ते ढेड़ सब, मद पीवैं सो नीच। कुलकी दुरमति पर हरै, राम कहै सो ऊंच।।10।।
कबीर, मांस मछलिया खात हैं, सुरापान से हेत। ते नर नरकै जाहिंगे, माता पिता समेत।।11।।
गरीब, जीव हिंसा जो करते हैं, या आगे क्या पाप। कंटक जुनी जिहान में, सिंह भेडि़या और सांप।।
झोटे बकरे मुरगे ताई। लेखा सब ही लेत गुसाईं।। मग मोर मारे महमंता। अचरा चर हैं जीव अनंता।।
जिह्वा स्वाद हिते प्राना। नीमा नाश गया हम जाना।।
तीतर लवा बुटेरी चिडि़या। खूनी मारे बड़े अगडि़या।।
अदले बदले लेखे लेखा। समझ देख सुन ज्ञान विवेका।।
गरीब, शब्द हमारा मानियो, और सुनते हो नर नारि।
जीव दया बिन कुफर है, चले जमाना हारि।।
अनजाने में हुई हिंसा का पाप नहीं लगता। बन्दी छोड़ कबीर साहिब कहते हैं:
"इच्छा कर मारै नहीं, बिन इच्छा मर जाए। कहैं कबीर तास का, पाप नहीं लगाए।।"
यदि कोई भक्त गुरु जी से द्रोह(गुरु जी से विमुख हो जाता है) करता है वह महापाप का भागी हो जाता है। यदि किसी को मार्ग अच्छा न लगे तो अपना गुरु बदल सकता है। यदि वह पूर्व गुरु के साथ बैर व निन्दा करता है तो वह गुरु द्रोही कहलाता है। ऐसे व्यक्ति से भक्ति चर्चा करने में उपदेशी को दोष लगता है। उसकी भक्ति समाप्त हो जाती है।
गरीब, गुरु द्रोही की पैड़ पर, जे पग आवै बीर। चैरासी निश्चय पड़ै, सतगुरु कहैं कबीर।।
कबीर, जान बुझ साची तजै, करै झूठे से नेह। जाकी संगत हे प्रभु, स्वपन में भी ना देह।।
अर्थात् गुरु द्रोही के पास जाने वाला भक्ति रहित होकर नरक व लख चैरासी जूनियों में चला जाएगा।
जुआ–तास कभी नहीं खेलना चाहिए।
कबीर, मांस भखै और मद पिये, धन वेश्या सों खाय। जूआ खेलि चोरी करै, अंत समूला जाय।।
किसी भी प्रकार के खुशी के अवसर पर नाचना व अश्लील गाने गाना भक्ति भाव के विरूद्ध है। जैसे एक समय एक विधवा बहन किसी खुशी के अवसर पर अपने रिश्तेदार के घर पर गई हुई थी। सभी खुशी के साथ नाच–गा रहे थे परंतु वह बहन एक तरफ बैठ कर प्रभु चिंतन में लगी हुई थी। फिर उनके रिश्तेदारों ने उससे पूछा कि आप ऐसे क्यों निराश बैठे हो? आप भी हमारे की तरह नाचों, गाओ और खुशी मनाओ। इस पर वह बहन कहती है कि किस की खुशी मनाऊँ? मुझ विावा का एक ही पुत्र था वह भी भगवान को प्यारा हो चुका है। अब क्या खुशी है मेरे लिए? ठीक इसी प्रकार इस काल के लोक में प्रत्येक व्यक्ति की स्थिति है। यहाँ पर गुरु नानक देव जी की वाणी है कि:-
ना जाने काल की कर डारै, किस विधि ढल पासा वे।
जिन्हादे सिर ते मौत खुड़गदी, उन्हानूं केड़ा हांसा वे।।
साध मिलें साडी शादी (खुशी) होंदी, बिछड़ दां दिल गिरि (दुःख) वे।
अखदे नानक सुनो जिहाना, मुश्किल हाल फकीरी वे।।
कबीर साहेब जी महाराज भी कहते हैं कि:--
कबीर, झूठे सुख को सुख कहै, मान रहा मन मोद।
सकल चबीना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद।।
कबीर, बेटा जाया खुशी हई, बहुत बजाये थाल।
आवण जाणा लग रहा, ज्यों कीड़ी का नाल।।
हम सब एक मलिक के बंदे हैं। भगवान ने किसी भी जाती या मज़हब के स्त्री पुरुषों में कोई अंतर नहीं किया तो हम क्यूँ करें?
दहेज लेना व देना कुरीति है तथा मानव मात्र की अशांति का कारण है। उपदेशी के लिए मना है। जिसने अपने कलेजे की कोर पुत्री को दे दिया फिर बाकी क्या रहा?
विशेष: स्त्री तथा पुरूष दोनों ही परमात्मा प्राप्ति के अधिकारी हैं। स्त्रिायों को मासिक धर्म (menses) के दिनों में भी अपनी दैनिक पूजा, ज्योति लगाना आदि बन्द नहीं करना चाहिए। किसी के देहान्त या जन्म पर भी दैनिक पूजा कर्म बन्द नहीं करना है।
नोट :–– जो भक्तजन इन इक्कीस सुत्रीय आदेशों का पालन नहीं करेगा उसका नाम समाप्त हो जाएगा। यदि अनजाने में कोई गलती हो भी जाती है तो वह माफ हो जाती है और यदि जान बुझकर कोई गलती की है तो वह भक्त नाम रहित हो जाता है। इसका समाधान यही है कि गुरुदेव जी से क्षमा याचना करके दोबारा नाम उपदेश लेना होगा।